*विचार – प्रवाह*

नटवर विद्यार्थी
मानव मन पर उसके आस – पास घटित घटनाओं का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है । इन घटित घटनाओं से उसके हृदय में प्रेम , विश्वास , शंका , घृणा , आक्रोश इत्यादि कई भाव उमड़ते रहते हैं । जहाँ तक ” आक्रोश ” की बात है इसे अत्यधिक क्रोधित होने की अवस्था या भाव कह सकते हैं । दूसरे शब्दों में किसी स्थिति के प्रति उत्तेजना या आवेश व्यक्त करना ही आक्रोश है । कई बार मानव की सोच के अनुरूप कार्य न होने पर उसमें बदलाव लाने के लिए मन उध्दत होने लगता है और यह स्थिति आक्रोश को जन्म देती है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आक्रोश एक सहज नैसर्गिक भाव है ।
” आक्रोश ” दो रूपों में सामने आता है – रचनात्मक और विध्वंसात्मक । रचनात्मक आक्रोश जनहित का भाव लिए होता है , इसमें राष्ट्रीय सम्पति और जन- धन की हानि की कोई गुंजाइश नहीं होती । विध्वंसात्मक आक्रोश हिंसा और तोड़- फोड़ का भाव लिए होता है फलस्वरूप इसकी सफलता पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता है । इस प्रकार के आक्रोश को दुर्बल आक्रोश की संज्ञा दी जा सकती है । किसी विद्वान ने एक जगह लिखा है ” रचनात्मक आक्रोश के मार्गदर्शक आचार्य होते हैं और विध्वंसात्मक आक्रोश के मार्गदर्शक राजनीतिज्ञ होते है ” ।
अरस्तु ने भी आक्रोश को लेकर अपनी भावनाएँ व्यक्त की है – ” कोई भी आक्रोशित हो सकता है , यह आसान है लेकिन सही व्यक्ति से ,सही सीमा में , सही समय पर और सही उद्देश्य के साथ सही तरीके से आक्रोशित होना सभी के बस की बात नहीं है और यह आसान भी नहीं है ।

– नटवर पारीक

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