जब कुछ नकाबपोश लोगों ने जेएनयू में घुसकर वहां के छात्रों से मारपीट की और पुलीस तमाशबीन बनी रही तो अगले रोज सिने तारिका दीपिका पादुकोण छात्रों के समर्थन में वहां गई. इस पर कुछ निहित स्वार्थ के लोग छपाक से उनकी फिल्म “छपाक” पर बिफर पडे.
ऐसे ही जब फिल्म “टॉयलेट” रिलीज हुई थी तब भी मिलते-जुलते नजारें देखने को मिले थे.
हमारे एक मित्र गुप्ता साहब पार्क में बैंच पर गुमसुम बैठे थे. मैंने पूछा क्या हुआ ?
बोले …टॉयलेट गए थे, थोडा लेट होगए, शुरू की थोडी निकल गई.
उन दिनों किसी को भी फिल्म देखने जाना होता तो अपने मित्रों से कहता टॉयलेट लगी है. चलकर आते है.
एक बार तो हद ही होगई जब एक छात्र क्लास में अपनी मैडम को I go to Toilet बोलकर Movie देखने चला गया.
कुछ तो यहां तक कहने लगे थे कि इससे अच्छे दिन और क्या आयेंगे ? लोग सज धजकर टॉयलेट जा रहे है.
जबकि हकीकत यह थी कि उससे पहले लोग रेल पटरी पर शौच करने जाते थे तो अगर पटरी टूटी होती तो आकर स्टेशन मास्टर को बता देते थे. जब टॉयलेट आगए तो इंटैलिजेन्स का यह सिस्टम करीब करीब बंद होगया.
कही कही यह भी देखने में आया कि कुछ मकान मालिक कमरा किराये पर देने हेतु “To Let” का बोर्ड लगाने की बजाय “Toilet” या “To Late” का बोर्ड लगाने लगे.
बहरहाल कहने का मकसद यह है कि जैसे टॉयलेट का अपना महत्व है वैसे ही अच्छे उध्देश के लिए बनी फिल्म “छपाक” का भी है. आप देखिये तो सही !
शिव शंकर गोयल