*विचार – प्रवाह*

नटवर विद्यार्थी
किसान खेत खलिहान में रात – दिन पसीना बहाकर जिसे उपजाता है , एक पिता अपने मेहनत की कमाई से जिसे खरीदकर लाता है और माँ, बहिन अथवा पत्नी जिसे तैयार करके हमारे खाने योग्य बनाती है उस अन्न को थाली में जूठा छोड़कर इतने लोगों का अनादर करने वाला प्राणी तो महा कृतघ्न ही कहलाएगा । एक तरफ़ करोड़ों लोग दाने- दाने को मोहताज़ है , कुपोषण के शिकार है वहीं लाखो टन अनाज की बर्बादी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है । पंडित बालकृष्ण शर्मा”नवीन” ने अपनी एक कविता के माध्यम से जो चित्रण किया है उसकी पंक्तियाँ मर्माहित कर देती है –
लपक चाटते जूठे पत्तल ,
जिस दिन देखा मैंने नर को ।
उस दिन सोचा क्यों न लगा दूँ ,
आग आज इस दुनिया भर को ।
यह सच है कि आज भी आधे से ज्यादा आबादी को एक वक़्त का भोजन कठिनाई से मिलता है , विवाह- समारोह अथवा पारिवारिक आयोजनों में फेंके गए जूठे अन्न में भोजन तलासते बच्चों को देखकर मन विद्रोही बन जाता है । जो भोजन कई जनों का पेट भर सकता था उस अन्न को जूठा छोड़कर बर्बाद करना घोर असामाजिकता है ।
हमारी भारतीय संस्कृति में अन्न को देवता माना गया है । भोजन की थाली को लकड़ी के ऊँचे बाजोट ( पाटा ) पर रखकर फ़िर भोजन मन्त्र बोलते हुए हाथ जोड़कर भोजन ग्रहण किया जाता था , विडम्बना है कि आज उसी साक्षात देवता का जूठन छोड़कर हम अपमान करने पर तुले हुए हैं । ज्योतिष के अनुसार जो व्यक्ति भोजन की थाली में जूठन छोड़ देता है उसकी कुंडली का गुरु और शनि ख़राब हो जाता है फलस्वरूप जीवन कठिनाइयों का घर बन जाता है । आहार से मिलने वाली सेहत भी उस व्यक्ति का साथ छोड़ देती है ।
आइये , घर-घर में यह मुहिम चलाएं –
इतना ही लो थाली में ,
व्यर्थ न जाए नाली में ।

– नटवर पारीक

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