वैज्ञानिक और वैश्विक भारतीय काल गणना

हनुमान सिंह राठौड़
मनुष्य में अपनी स्मृतियों को संजोने की स्वाभाविक इच्छा रहती। वह इन्हें कालक्रमानुसार पुनः स्मरण करना या वर्णन करना भी चाहता है, सम्भवतया इसीलिए समाज विकास के साथ काल गणना की पद्धति का भी विकास हुआ होगा। किन्तु काल गणना का विचार मन में आते ही प्रश्न उत्पन्न होता है कि काल क्या है ? इसका आरम्भ और अन्त कैसे होता है ? भारतीय ऋषियों ने इसके बारे में गइराई से विचार किया है। उन्होने मोक्ष प्राप्ति के साधनभूत द्रव्यों में काल को भी सम्मिलित किया है। इस विषय में वैशेषिक दर्शन के दृष्टा ऋषि कणाद् का कथन है –
‘पृथ्वीव्यापस्तेजो वायुराकाश कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।’
अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन ये द्रव्य हैं। मोक्ष प्राप्ति हेतु इनका तत्वज्ञान अनिवार्य है।
व्याकरण की दृष्टि से काल शब्द गत्यर्थक, गणनार्थक अथवा प्रेरणार्थक ‘कल्’ धातु से ‘घ´’ प्रत्यय करने से बनता है। इस प्रकार काल का अस्तित्व गति में निहित है।

हनुमान सिंह राठौड़
काल के रूप:- काल के दो रूप हैं – मूर्तकाल और अमूर्तकाल। काल की सूक्ष्मतम ईकाई, भारतीय गणना में ‘त्रुटि’ है। जिसका मान एक सैकण्ड का 33750वाँ हिस्सा है। काल की दीर्घतम इकाई कल्प है, जिसका मान 432 करोड़ वर्ष है। इसे काल का मूर्त रूप कहते हैं। अमूर्त काल को समझने के लिए घड़ी का उदाहरण ले सकते है। घड़़ी के कांटों से जो सैकण्ड, मिनट, घण्टे बनते हैं, वह काल की प्रगति का फल हैं, परन्तु उनके पीछे की प्रेरक शक्ति अमूर्त, अव्यक्त काल ही है।
काल की उत्पत्ति:- वेद में सृष्टि के प्रारम्भ का वर्णन है, जो विज्ञान के आधुनिक ‘बिग बेंग सिद्धान्त’ (महाविस्फोट सिद्धान्त) का मूलधार है –
हिरण्य गर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
सृष्टि के पूर्व सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ही विद्यमान था, इससे ही सब भूतों की उत्पत्ति होती है, वहीं इनका एकमात्र विधाता व स्वामी है, उसी ने पूर्व में गगन पर्यन्त सभी (तत्वों) को आधार व अस्तित्व प्रदान किया है, हम उस आदि देव को छोड़कर किसे अपना हविष्य प्रदान करें।
इस हिरण्मय अण्ड के विस्फोट से विश्व द्रव्य (मेटर) का प्रथम पदार्थ जब गतिमान होता है तो सर्वप्रथम काल की स्थापना होती है। काल सापेक्ष है अतः सृष्टि के आदि बिन्दु से इसका प्रारम्भ मानकर – काल-प्रवाह की गणना की जाती है। बिना काल के इतिहास हो ही नहीं सकता।
मनवन्तर विज्ञान:- इस पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास की कुंजी मनवन्तर विज्ञान में है। इस गणना से पृथ्वी की आयु लगभग उतनी ही आती है, जितनी आज के वैज्ञानिक मानते हैं। पृथ्वी की सम्पूर्ण आयु को 14 भागों में बांटा गया है, जिन्हें मनवन्तर कहते है। एक मनवन्तर की अवधि 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्ष होती है। प्रत्येक मनवन्तर में एक मनु होता है। अब तक 6 मनु-स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तय, तामस, रैवत तथा चाक्षुष हो चुके हैं। अभी सातवाँ ‘वैवस्वत’ मनवन्तर चल रहा है। प्रत्येक मनवन्तर प्रलय से समाप्त होता है। इस प्रकार अब तक 6 प्रलय, 447 महायुगी खण्ड प्रलय तथा 1341 लद्यु युग प्रलय हो चुके हैं।
एक मनवन्तर में 71 चतुर्युगियाँ होती हैं। एक चतुर्युगी 43 लाख 20 हजार वर्ष की होती है।
भारतीय काल गणना की विशेषता:- भारतीय कालगणना का वैशिष्ट्य यह है कि यह उस काल तत्व पर आधारित है जो सारे ब्राह्माण्ड को व्याप्त करता है। इसके कारण यह विश्व की अन्य कालगणनाओं की भांति किसी घटना विशेष, व्यक्ति विशेष पर आधारित। किसी देश विशेष की काल गणना नहीं है। नक्षत्रों की गतियों पर आधारित यह काल-गणना समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एवं पृथ्वी पर सृष्टि-चक्र के प्रारम्भ को रंगित करती है, और इसी कारण यह काल-गणना वैज्ञानिक एवं वैश्विक है।
स्थूल रूप में काल गणना प्राकृतिक, भोगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, ऐतिहासिक चेतना की द्योतक होती है, जैसे – सृष्टि का प्रारम्भ, सम्वतों का प्रारम्भ, राम का राज्यारोहण, नवरात्र प्रारम्भ, झूलेलाल अवतरण, गुरू अर्जुन देव का प्राकट्य दिवस, संघ संस्थापक डाॅक्टर हेडगेवार जयंती, आर्य समाज, राजस्थान व अजमेर स्थापना दिवस आदि। किन्तु स्मरण रहे इन घटनाओं से नव सम्वत्सर का महत्व नहीं है। ये घटनाएँ नव सम्वत्सर को हुई अतः ये स्मरणीय हैं।

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