काश भूख और जरुरत नापने का कोई पैरामीटर होता

कोरोना जैसी महामारी के दौरान निकल कर आ रही इसतरह की खबरें.. *’कांग्रेस सरकार और प्रशासन पर राहत कार्यों में भेदभाव का आरोप लगा।अजमेर भाजपा सांसद,विधायक,देहात जिलाध्यक्ष व पूर्व जिलाध्यक्ष पहुंचे कलैक्टर से मिलने’।वहीं कांग्रेस द्वारा भाजपा विरोधी खबरें तो कभी कलैक्ट्रेट के बाहर राहत सामग्री को लेकर राजनीतिकों का जमावडा..क्या कह रही है आखिर ये खबरें हमसे।*
कोरोना वायरस बांह फैलाये खडा है हर घर की दहलीज पर, दस्तक देने को उतावला हो रहा है।बाऊजूद इसके हम आज भी मानवीय संवेदनाओं के बारे में तिल भर भी सोचने को तैयार नहीं है। संकट की ऐसी भयावह स्थिति में भी हमारा अहम् पल भर के लिए भी सोया नहीं।उल्टा अहम् अधिक बलशाली होते आपस में ही तकरारें करने पर आमदा हो रहा है।कहीं राजनीतिक खींच तान तो कहीं कूटनीतिक चालों के किस्से रोज सुनने को मिल रहे हैं।
*इंसान की ‘भूख’ और ‘जरुरत’ पर भी अब राजनीति होने लगी है।राजनीतिक लोगों ने ‘भूख’ की परिभाषा को अपने अपने हिसाब से गढ लिया है।जबकि ‘भूख’ एक भाव है,जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता।ऐसा नहीं है कि किसी दल की ‘भूख’ किसी अन्य दल की ‘भूख’ से भिन्न हो..’भूख’ एक समभाव संज्ञान है,जिसका अहसास हर प्राणी मात्र को एक समान होता है।जबकि संकट की इस घडी में ‘भूख’ को लेकर अलग अलग राजनीतिक दलों ने अलग अलग पैमाने तय कर दिये हैं।समूचे देश प्रदेश में यही हालात हैं…बेचारी जनता निरीह भाव से संज्ञा शून्य सी ‘भूख’ की बदली परिभाषा को देखने में लगी है।कमोबेश संकट की इस घडी में बलवान हुई राजनीति के आगे सभी जगह ‘भूख’ को मानवीय संवेदनाओं के दायरे में कोई नहीं देख रहा।* वहीं दूसरी ओर संकट की इस घडी में सर्वत्र *एक शब्द ‘जरुरत* *मंद’ को सभी दोहराने में लगे हैं।जहां ‘जरुरत मंद’ की* *परिभाषा को भी राजनीति का चरित्र धारण किये लोगों ने अपने अपने हिसाब और वोटों की सहूलियत को देखते* *भिन्न भिन्न स्वरुप प्रदान कर दिया है।ऐसे में अब सच में ‘जरुरत मंद’ है कौन❓यह तय कर पाना मुश्किल है…यह तो उन सबका* *’राम’ जाने।यहां सबके ‘चश्मों’ के नम्बर अलग*
*अलग हैं। किसी को कोई* *प्राणी ‘जरुरतमंद’ लगता है तो* *वही प्राणी किसी को खाया* *पिया।ऐसे में क्या कर लेंगे हम,..मानवीय संवेदनाओं के ‘ब्रह्मचारी’* *हर गली मौहल्ले में व्याप्त हैं।संकट की घडी में भी हो रही राजनीति के आगे मानवीय संवेदनाओं का खुले आम दोहन हो रहा है।* *जनता से वसूले और जनता पर ही खर्च हो रहे धन के खर्च का मूल्यांकन नीतिगत ना हो तो क्षोभ व्याप्त होना लाजमी है।’भूख’ और ‘जरुरत’ का कोई ‘पैरामीटर’ तो होता नहीं कि जिसे हम किसी प्राणी में लगा कर यह जान लें कि कौन ‘भूखा’ है और कौन ‘जरुरत मंद’।बरहाल इसी ‘थोथ’ का लाभ उठाने में लगे हैं, सभी अवसर वादी राजनीति के नुमाईंदे।यहीं शर्मसार हो रही है,मानवीय संवेदनायें।संकट की घडी में जनता का पैसा जनता पर किस तरह खर्च हो व किन किन हाथों से खर्च हो..इसके लिए कोई मजबूत राजनीति विहीन प्लेटफार्म नहीं है।सभी जगह राजनीति के नुमांईदे अपनी अपनी तूंती और अपना अपना राग अलापने में लगे हैं।ऐसे में खुदा खैर करे…!!!*

सर्वेश्वर शर्मा
*_संपादक*
*’कुछ अलग*
*मो.9352489097*

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