महामारी का अंधड़
एक मे बाद एक
जिंदगी लीलता हुआ
हमारी ओर आ रहा है
हम अपने अपने दड़बों, बंकरों गुफाओं में छुपे बैठे
उसके गुजर जाने का इंतजार कर रहे हैं
दरवाजे कस कर बंद कर रखे हैं
आस पास बिलखती आह भी इसमें घुस नही सकती
क्या सचमुच हम डर रहे हैं
या डर का अभिनय कर रहे हैं
डर को दूसरे चेहरों पर देख इत्मीनान कर बैठे हैं
महामारी ने जिन जिंदगियो को डसा है
या डसने के जद में लिया है
वे दानव हैं, मौत के वाहक हैं
उन्हें सचमुच जीने का कोई हक नहीं है
अपने एकान्तवास में टी वी के सामने बैठ
लाशों की गिनती कर रहे हैं
किस निर्वाचन क्षेत्र में कौन कितनी मौतों से आगे चल रहा है
सोशल मीडिया पर
अपने आँसू, चिंता,गुस्सा, संतोष उढेल कर
मान बैठे है
हम दुनिया की आखिरी समझदार नस्ल हैं
ऊपर से नीचे तक सफेद कफन ओढ़े
घूमते देवदूतों पर
कुछ पत्थर पत्थर बरसा रहे हैं
हम पत्थरों की पहचान ढूंढ रहे हैं
मौत के सबसे ज़हरीले जीवाणु को
विधर्मी बताकर अपना धर्म निभा रहे हैं
जबकि मंदिर, मस्जिद ,गिरजाघरों ने
शव की शिनाख्त करने से मना कर दिया है
लॉक डाउन, सोशल डिस्टनसिंग
हमारी भाषा में दाखिल हो चुके हैं
जैसे दाखिल हो गया है
बीमारी का यह वायरस अनेक स्वस्थ शरीरों में
हमारे गैस के चूल्हे
सुखी लकड़ियों की कच्ची आंच को निगल रहे हैं
रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले गलों को
मानसूनी बादल के आश्वासन बाँटें जा रहे हैं
हम भूल रहे हैं
खत्म होती दुनिया मे
सब कुछ कभी खत्म नहीं होता
जो बचा रह जाता है
वह बयान करता
हमारा डर कितना सच्चा था
हमारे आंसूं कितने गीले थे
हमारे दिन कितने खाली थे
हमार रातें कितनी अंधेरी थी
*रास बिहारी गौड़ *