सरकारी व्यवस्था और मजदूर

महेन्द्र सिंह भेरूंदा
लोकडाउन के वक्त मजदूरों की रहने की व्यवस्था को क्या किसी ने देखा ! और क्या खाने की व्यवस्था कैसी है किसीने उनकी भूख को पढा ! तो क्यो पूछ रहे हो कि ” यह मजदूर अपने राज्य की तरफ क्यों भागना चाहते है ” मजेदार बात यह है कि यह प्रश्न वो लोग पूछ रहे है जिहोने अपने बच्चों को दूसरे राज्य या विदेश में पढ़ने के लिए भेजा था या किसी व्यवसाय में कार्यरत थे सम्पन्न लोगों ने उनको पहले ही बुला लिया था क्योकि वह बच्चे किसी सम्पन्न परिवार का भविष्य है उन बच्चों के पिता ऐसी महामारी के वक्त में अपने बेटे या बेटी से दूर नही रह सकते, उनके परिवार को चिन्ता में नींद नही आती है और उनकी सम्पन्न माँ को रात में डरावने स्वप्न आते है इसलिए सम्पन्नता इन समस्याओं के समाधान को किसी भी मूल्य में खरीद सकती था ।
परन्तु एक गरीब असहाय व्यक्ति किसी समाधान को खरीदने का सामर्थय तो नही रखता है परन्तु गरीब बाप की भावनाएं भी महामारी के वक्त अपने बेटे की चिंता बहुत करती है तो ऐसे वक्त में उस परिवार के लोग भी अपनो को भुला नही पाते है तो एक गरीब माँ की कोख भी जलन और बेचैनी महसूस करती है परन्तु कर कुछ नही सकती फर्क केवल इतना सा है कि अमीर व्यक्ति समाधान खरीद लेता है और गरीब को भूख
समाधान का विचार तक नही करने देती है इस लिए उसका समाधान केवल भगवान के भरोसे ही चलता है ।
या यह कह सकते है कि सम्पन्नता की नमी में ऐसे अप्रसांगिक प्रश्नों की खरपतवार आसानी उग जाती है कि ” यह मजदूर अपने राज्य की तरफ क्यों भागना चाहते है ”
परन्तु भूख के बीहड़ में गरीब की नजर केवल एक निवाले की कल्पना ही कर सकती है प्राप्ति के लिए तो वह केवल सरकार पर निर्भर है और वह जिस सरकार पर निर्भर है वह संवेदनहीन व गूंगी और बहरी है ।
इस लिए हालात नाजुक है ।
महेंद्र सिंह भेरून्दा

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