… और बाजार खुल गया

कहानी

मोहन थानवी
कोरोना से बचाव के लिए वह कई दिन अपनी खोली से बाहर नहीं निकला था। उसे इस महानगर में आए बमुश्किल 4 महीने हुए थे कि संसार के ऊपर इस महामारी ने तांडव मचा दिया। इसी के चलते वह भी अपनी खोली में बंद हो गया। कभी-कभार बाहर निकलता अन्यथा उसे समाजसेवी एक थैला दे जाते जिसमें कुछ दिन का उदरपूर्ति का पका सामान होता था। वह चाय पीता नहीं था इसलिए दूध की दरकार उसे न थी और ना ही उसके खीसे में इतने पैसे थे कि वह रोजाना चाय पी लेता। वह गांव से आकर इस महानगर में एक ठेकेदार के यहां मकान बनाने के काम पर जाकर लगा। ठेकेदार उसे रोजाना ₹300 पकड़ा देता था जो इस महानगर में अकेली जान के लिए तो काफी थे और सौ पचास बचाकर वह अपने बूढ़े मां-बाप को गांव में भी हजार पंद्रह सौ दो-तीन महीने तक भेजता रहा। खोली उसे उसी के गांव के एक व्यक्ति ने इसलिए दे दी कि वह गांव जा रहा था और दो-तीन महीने में उसे वापस आना था। तो खोली की सार संभाल के लिहाज से वह खोली में आकर रहने लगा। कोरोना से बचाव के चलते लॉकडाउन लगा था और लॉक डाउन में उसे बाहर की दुनिया की कोई खबर नहीं मिल पा रही थी। खोली में ना तो टीवी था ना उसके पास रेडियो या ट्रांजिस्टर था। हां एक बटन वाला मोबाइल जरूर था जिसमें वह एफएम से गाने सुन लेता था। बाहर की दुनिया की खबर उसे वही लोग दिया करते थे जो उसके लिए खानपान की सेवा करने पहुंचते थे। वह उनसे दूर रहता, क्योंकि वे ही लोग कहते थे – दूर रहा करो, कोरोना का डर है। उसे इतना तो पता था कि 50 दिन से ज्यादा उसे इस खोली में बंद रहते हुए हो गए हैं और इस स्थिति से वह परेशान हो चुका था। बीते चार पांच दिन से उसे खांसी जुकाम था। अब तो वह बुखार से भी तप रहा था। उसे कोरोना से कोई डर नहीं लगता था। वह तो केवल बचाव के लिए खोली में बंद था और वह भी सभी के कहने पर। वे ही लोग उसे कहते थे – चीजों के पैकेट को हाथ लगाने के बाद सेनेटाइज किया करो… क्या पता किस किस के हाथों से गुजरा हो…। वह रोजाना काम पर जा कर अपनी भूख को मिटाने का साधन जुटाने के लिए तैयार रहता। साथ ही उसे अपने गांव में बैठे बूढ़े माता-पिता की भी चिंता थी। उसे इतना मालूम था कि वह 50 दिन से ज्यादा से इस खोली में बंद है। अब तो कोई खाना पीना भी नहीं पहुंचा रहा। वह दो दिन से भूखा है। आज वह बड़ा हौसला और हिम्मत करके खोली से बाहर निकला और गली के नुक्कड़ तक जा पहुंचा। नुक्कड़ से उसने अपनी मुंडी बाहर निकालकर झांका तो दूर उसे दो पुलिस वाले दिखाई दे गए और वह वहीं से डरता कांपता वापिस खोली की ओर बढ़ चला। खोली में आकर वह हताश निराश निढाल बैठ गया। अंधेरा छा गया था। खोली में जो अंधेरा रात का फैल रहा था उससे कहीं ज्यादा अंधेरा उसे अपने मन में महसूस हुआ। खांसी बुखार से निढाल था मगर वह निकल पड़ा अपनी खोली से। इस महानगर के विशाल आंगन में जिन्दगी तलाशने। जिस महानगर के लिए गांव में बैठे हुए उसे रोशनी ही रोशनी दिखाई देती थी। वह रात भर महानगर में इधर से उधर घूमता रहा। जहां उसे पुलिस वाले दिखाई देते वही वह दुबक कर दीवार के सहारे किसी पेड़ के पीछे छिपकर या किसी पार्क की हुई कार के आड़ में होकर पुलिस से बचने की कोशिश करता। जैसे तैसे रात बीती और सूरज की उजली किरण रोशनी फैलाने लगी। उसे कुछ हिम्मत बंधी। उसने एक जगह लगे नल से हाथ मुंह धोया और भरपेट पानी पिया। फिर निकल पड़ा काम की तलाश में। उसे जल्दी ही पता चल गया कि लॉकडाउन के कारण कहीं कोई काम नहीं चल रहा था। शाम होने को आई मगर उसके पेट में तीन दिन से दौड़ते चूहे थके नहीं। तब उसे आसपास ऐसे लोगों की भी आवाजाही दिखाई थी जो खुद दो वक्त की रोटी की तलाश में थे। वह उनमें शामिल हो गया। लेकिन यह क्या… उसने देखा लोग इधर-उधर भागने लगे थे। वह भी भागा और एक दीवार के पीछे खड़े दो लोगों के पास पहुंचा। उन दोनों ने उसे कहा भागो, इधर से भाग जाओ। वरना पुलिस पकड़ लेगी। उसने पूछा, क्यों ? तब उन्होंने कहा कि हम लोग मांग रहे हैं बसें, मांग रहे हैं रोटी, हम लोग मांग रहे हैं ट्रेन, मांग रहे हैं छत, हम लोग मांग रहे हैं काम, हम लोग मांग रहे हैं दवा, लेकिन ये नेता लोग हमें कुछ नहीं दे रहे। हम अपने गांव जाना चाहते हैं। बसों और ट्रेनों से। ये नेता लोग टालमटोल में लगे हैं। उसे कुछ समझ में आता उससे पहले दीवार के पीछे से चार छह पुलिस वाले झटके से निकले और उन्होंने उन तीनों को दबोच लिया। वे उन्हें एक बख्तरबंद गाड़ी में डालकर ले गए। उस गाड़ी में कुछ और लोग भी पहले से ही बंद थे। पुलिस वालों ने उन्हें एक बड़े से मैदान के पास ले जाकर गाड़ी से निकाला और उन्हें कहा कि वहां सामने चले जाओ, तुम्हारे खाने-पीने का इंतजाम यहां हो जाएगा। आज ही गांव जाने की जिद मत करो, एक-दो दिन में कोई ना कोई इंतजाम होगा तो यहां से तुम्हें ले जाया जाएगा। वह दूसरे लोगों की तरह उस मैदान में जा पहुंचा जहां पहले से ही बहुत सारे लोग न जाने किस उम्मीद में बैठे थे। भूख प्यास की बातें कर रहे थे। वह जब उनकी बातें सुन रहा था तब उसे भान हुआ कि उसने तीन दिन से कुछ भी नहीं खाया पिया। भूखे पेट है वह। उसने उन लोगों की ओर देखा, भूखे होने के बावजूद वे ऊपर वाले से दुआएं कर रहे थे। भजन गा कर अपनी पीड़ाएं छुपा रहे थे। खांसी से दम फूल रहा था उसका लेकिन आशाओं के झूले पर बैठ के वह भी उनके साथ खुशी खुशी भजन कीर्तन में वक्त बिताने लगा। लेकिन जल्दी ही उसकी आंखों के आगे सभी लोग धुंधले होने लगे। आवाजें दूर जाने लगी। उसने तीन दिनों से कुछ नहीं खाया था, बुखार में था। कमजोरी से उसे चक्कर आने लगे, पेट का सब बाहर आने को हुआ और वह गिर पड़ा। अंधेरे में गुम होते चेहरे देखते देखते किसी के मुंह से निकली बात उसने सुनी – कई जगहों पर बाजार खुलने की घोषणा हुई है। और फिर लोगों की खुशी भरी आवाजें सुनते सुनते वह अंधेरे में खो गया। उसे कभी पता नहीं चलेगा कि कुछ लोग उस पर एक चादर डालकर पुलिस को सूचना देने सड़क की तरफ जा रहे थे।

-✍️ मोहन थानवी

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