भीतर की अनुभूतियों का दर्शन शास्त्र है “मेरे रहते”

हेमंत जो हमारे बीच एक अमर याद बनकर बस गया है:

विश्व मैत्री मंच के सभी साथियों को देवी नागरानी का सप्रेम नमस्ते
“ बाहर की लौ जगमग जगमग भीतर के क्यों जली बुझी है
मन में घोर अमावस कैसी कोई नारी मन से पूछे”

मैं नारी मात्र नहीं, एक माँ भी हूँ, और आज अपनी भावनाओं को आप सभी के साथ साँझा कर रही हूं. सबसे पहले वंदना उस ममतामई माँ संतोष श्रीवास्तव जी कोकारती हूँ, जो जीवन की अपार पीढ़ा अपने सीने में समेटे उन उन तारीक गलियारे में यादों के दिए जलाये आगे और आगे चल रही है.
आज 23 मई का दिवस है और विशेष है, विशेष इसलिए कि आज हेमंत का जन्मदिन है. ऐसे ही एक दिन शायद 2007 या 2008 की बात है जब मैं पहली बार प्रिय संतोष जी से अंधेरी सभागृह में मिली जहां उनके आदेश अनुसार मुझे हेमंत के उस संग्रह के बारे में कुछ कहना था. कुछ दिन पहले उन्होंने मुझे फूलों के गुलदस्ते के साथ ‘मेरे रहते’ नाम की रचनावली भेजी, जो हेमंत एक यादगार के रूप में उसके लिए नहीं, बल्कि देश के हर माँ के लिए छोड़ गया.
हेमंत आदरणीय संतोष जी का सुपुत्र जो आज हर माँ के दिल में बसा हुआ है और हर साल इस दिवस पर जैसे एक महोत्सव मनाया जाता है. हेमंत भारत मां का बेटा था, है और सदा रहेगा, जब तक हर मां के सीने में दिल धड़कता रहेगा. तेरे मेरे बीच का फासला शायद हेमंत जल्दी लांघ पाया था और अब हमसे दूर रहकर भी वह हमारे पास है, हमारे बीच है और रहेगा अपने रचनात्मक शब्दों की ध्वनि में.
‘मेरे रहते’ के पन्नों को पलटते, पढ़ते पढ़ते मैं हेमंत की भावनात्मक शब्दों की शैली में, उन शब्दों की गहराई में डूबती रही, उभरती रही, सोचती रही कि कैसे कोई उम्र के उस पड़ाव में इतनी सुंदर कविताएं लिख पाया होगा. एक जगह मेरी सोच ठिठक गयी जब जब पढ़ा:
ए खुदा मैं अपनी नफरत को बर्फ़ पर लिखूंगा
और सूर्य का इंतजार करूंगा
ताकि बर्फ़ के साथ
मेरी नफरत भी पिघल कर बह जाए.
उसी रौ में बहते बहते मैंने रचनाओं से शब्द चुने, कुछ वाक्यांश भी चुनकर एक ग़ज़ल बुनी, जिसका रदीफ़ था ‘मेरे रहते’. वही गज़ल मैंने उस मंच पर संचालक आलोक भट्टाचार्य की इजाजत से गाई भी थी. गजल तो याद नहीं पर एक शेर ताज़ा लिखा है जो संतोष जैसी हर माँ को अर्पित करती हूँ.
बहे आंसू ना आंखों से, बना लो सीप में मोती
मिटाएगा कोई क्या याद, मेरी माँ मेरे रहते
मंच पर ग़ज़ल का पाठ हुआ वहां जाने-माने हस्ताक्षर अतिथि मंचासीन थे. डॉ नामवर सिंह, आलोक श्रीवास्तव जी, प्रमिला वर्मा और संचालक आलोक भट्टाचार्य, व् मुंबई शहर के प्रमुख साहित्यकार. पर मेरी नजरों में मुख्य किरदार थी संतोष जी, जो हिम्मत की शम्मअ लिए हर उस मोड़ पर आज भी, जहाँ हर साल इसी दिन उन यादों की शादाबियों को सांसो में संजोए, वह अपनी मुस्कुराहट बिखेरती हुई मंजिल की ओर बढ़ रही है
मिली है वहां उसको मंजिल मुबारक
जहां उसने हिम्मत की शम्मा जलाई
हर माँ को आज का दिन मुबारक हो

देवी नागरानी

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