राजस्थान के सियासी घमासान पर दो दिन लाॅकडाउन

रजनीश रोहिल्ला।
राजस्थान के सियासी घमासान पर दो दिन लाॅकडाउन लग गया है। मंगलवार को कोर्ट ने तय किया कि फैसला शुक्रवार यानि 24 जुलाई को सुनाया जाएगा।
सुबह से ही डिविजन बैंच ने लगातार तीसरे दिन पायलट खेमे की याचिका पर सभी पक्षों की सुनवाई की। लंच टाइम के बाद कोर्ट एक बार फिर बैठी। रााजनीतिक से जुड़े लोगों की धड़कने ठकर सी गई। ऐसे मैके कभी कभार ही आते हैं, जब सबकी निगाहें और दिल कोर्ट के फैसले पर लग जाते हैं।
यू ंतो मंगलवार बालाजी का वार है लेकिल मंगल को कोर्ट भी न्याय के मंदिर तरह महत्वपूर्ण हो गया। पायलट के पूरे राजनीतिक कॅरियर का सवाल खड़ा हो चुका है। परिस्थितियां ऐसी बन चुकी है कि अगर पायलट की याचिका खारिज हो गई तो फिलहाल पायलट कहीं के नहीं रहेंगे। और अगर पक्ष में फैसला आ गया तो गहलोत के लिए मुश्किलें अभी से ज्यादा चुनौती भरी होगी।

रजनीश रोहिल्ला
कोर्ट द्वारा फैसला 24 तारीख तक सुरक्षित रखने के बाद कई मीडिया में खबरें चली कि पायलट को कोर्ट से फौरी तौर पर राहत मिल गई है। ऐसा नहीं है।
कोर्ट ने किसी को कोई राहत नहीं दी है। कोर्ट की जो भी राहत होगी वो 24 को ही सामने आएगी। मामला पेचीदा है। कोर्ट में विधानसभा स्पीकर की ओर से जारी नोटिस को चैलेंज किया गया है। स्पीकर की मंशा और उनकी भूमिका पर सवाल खड़े किए गए हैं। यह कानून है। सुनी सुनाई बातों पर नहीं, रिकार्ड पर चलता है। मामले को जीतने के लिए दोनों पक्षों के वकीलों ने संविधान को खंगाला, सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले अदालत के सामने रखे हैं।
मामला महत्वपूर्ण नहीं होता तो कोर्ट तीन दिन तक लगातार सुनवाई नहीं करता। मामला गंभीर है, संविधान में लोकतंत्र की रक्षा के लिए बनाए गए दल बदल और खरीद फरोख्त जैसे गंभीर विषयों से जुड़ा कानून है।
मामला बहुत बारीक है, यह किसी गहलोत या पायलट, कांग्रेस और बीजेपी के लिए तो तुंरत निर्णय फयादा दिलाने वाला हो सकता है। लेकिन जल्दबाजी का निर्णय लोकतंत्र के लिए कभी अच्छा नहीं हो सकता।
पिछले डेढ़ साल में सबसे ज्यादा चिंता का विषय जो बनकर उभरा है, वो खरीद फरोख्त से दल बदली कर सरकार गिराने का विषय है। इसको लेकर जितना चिंतिंत भारत का बुद्धिजीवी वर्ग है, उतने ही संवदेनशील देश के कोर्ट भी हैं।
इस तरह के मामले जब-जब कोर्ट के सामने आए हैं, कोर्ट ने बारीक से बारीक तथ्यों पर ध्यान दिया है।
हमें थोड़ा समझना चाहिए। संविधान ने स्पीकर को बहुत बड़ी ताकत दी है। ताकत यह है कि वो अपने विवेक से जनता के द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि का जनप्रतिनिधि होेने का अधिकार समाप्त कर सकता है। अब आप समझ सकते हैं, कोर्ट की नजर में यह मामला बहुत ही महत्वपूर्ण क्यों है।
हरीश साल्वे हो, मुकेश रोहतगी या फिर अभिशेक मनु सिंघवी। यह सारे कानून के जाने-माने दिग्गज हैं। सुप्रीम कोर्ट के बड़े नामी वकील हैं। यह लोग कभी-कभार ही हाई कोर्ट की सुनवाई में भाग लेते हैं। अब आप समझ सकते हैं कि कोर्ट का निर्णय कितना संवदेनशील है।
अब आती है राजनीति की बात। राजनीति चलती रहेगी। देश में खरीद फरोख्त और दल बदल रोकने के लिए कानून बना। लेकिन हुआ क्या। उसके दूसरे रास्ते निकाल दिए गए। खरीद फरोख्त के तरीके बदल गए। पहले दो चार विधायकों की उनके पक्ष से नाराजगी और कुछ प्रलोभन से काम चल जाया करता था। दल बदल कानून के बाद दो तिहाई विधायकों की जरूरत पड़ने लगी। सो वो काम भी होने लगा। अभी हाल ही में मध्य प्रदेश में हुआ है।
कोर्ट के सामने सवाल सिर्फ यह ही नहीं है कि पायलट सही है या गलत। कोर्ट के सामने सवाल और भी हैं। जो कानून बना हुआ है, क्या वो दल बदल को रोक पा रहा है। क्या वो कानून प्र्याप्त है, लोकतांत्रिक सरकारों को उनका पांच साल का काम करने के लिए। या फिर कुछ और विचार करने की जरूरत है। कोई नियम बनाने, कोई संशोधन। या फिर कुछ और।
कोर्ट के सामने आज यह भी आया है कि जो भी व्यक्ति जिस भी पार्टी से चुनाव लड़कर जीतता है, उसको पांच साल उसी पार्टी के लिए कार्य करना होगा। अगर वो ऐसा नहीं करता है, पार्टी के खिलाफ जाता है, तो उसकी सदस्यता खत्म करने के साथ-साथ उसके छह साल तक चुनाव लड़ने पर रोक और सरकार में किसी भी प्रकार का कोई भी पद नहीं मिलने के प्रावधान को भी जोड़ा जाना जरूरी है।
जिससे जनता जो अपने प्रतिनिधि को पांच साल के लिए सदन में भेजती है, उसका विश्वास और भरोसा चुनाव की प्रक्रिया पर बना रहे।
विचार तो और भी सामने आ रहे है ंकि दल-बदल के कारण होने वाले चुनाव का खर्चा भी इस्तीफा देकर पार्टी बदलने वालों से लिया जाना चाहिए। सुना है 20 से 35 करोड़ हो चुकी हैं रेटें।
अपने एक मित्र कह रहे थे। इससे अच्छा तो कोई व्यवासय हो ही नहीं सकता। एक विधायक बनने का मोटा मोटा खर्चा 1 से 3 करोड़। साल दो साल में ही 20 से 30 करोड़ के बीच मिल जाए। तो इससे अच्छा क्या होगा।
जनप्रतिनिधि बिक रहे हैं, तभी तो काॅरपोरेट जगत के लोग हावी हो रहे हैं। लोग बिक रहे हैं, तभी तो उन्हें बाजार में खरीदने वाला वर्ग तैयार हो रहा है। यह वर्ग सब पर हावी हो चुका है। लोकतंत्र के चारों स्तंभों पर इस वर्ग का वजूद नजर आ रहा है।
यह वर्ग जिसके साथ होता है, उसकी सरकारें बनती, चलती है। यह वर्ग जिसके साथ होता है, उसे न्याय समय पर मिल जाता है। यह वर्ग जिसके साथ होता है, उसकी ही मीडिया चलती है। यह वर्ग जिस प्रशासनिक अधिकारी के साथ होता है, वह उसी जिले का मुखिया होता है, जिसको यह वर्ग तय करता है।
लोकतंत्र के चारो स्तंभो को यह वर्ग धीरे-धीरे अपने जाल में, वश में करने में लगा है। एक तरह सेे लील रहा है। इसके लिए आवाजे उठती रही हैं, उठ भी रही हैं, उठती भी रहेंगी। हम इसे कांग्रेस और बीजेपी के बीच का झगड़ा बताकर विषय को हल्का नहीं कर सकते।
जरा समझ लिजिए। लोकतंत्र के चारो स्तंभ का मतलब।
1 विधायिका – मतलब कानून बनाना, रक्षा करना।
2 न्यायपालिका- कानून की पालना कराना, बहुत बारीक न्याय करना।
3 प्रशासन- सरकार के कार्यक्रमों को लागू करवाना। अंतिम व्यक्ति तक के लाभ को सुनिश्चित करना।
4 मीडिया मतलब सच्चाई को जनता तक पहुंचाना और नियमों के विरूद्ध चलने वाले सारे विचारों को जनता से अवगत कराना।

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