*शहर – गाँव*

नटवर विद्यार्थी
सूख गया आँखों का पानी ,
बैठे-बैठे शहरों में ।
केवल चुप्पी सी छाई है ,
खुशियाँ सारी पहरों में ।

अपनापन काफ़ूर हो गया ,
लगते सभी पराए हैं ।
दीवारों में क़ैदी बनकर ,
अब तक रहते आए हैं ।

रिश्ते-नाते गौण हो गए ,
चारों तरफ छलावा है ।
आना-जाना तो पड़ता है ,
लेकिन सिर्फ़ दिखावा है ।

घर में भोजन बन्द हो गया ,
बाहर से सब आता है ।
आज रसोईघर सूने हैं ,
फ़ास्ट-फ़ूड से नाता है ।

गाँवों में अब भी सब कुछ है ,
जिंदा रिश्ते-नाते हैं ।
पता नहीं फिर लोग दौड़कर ,
शहरों में क्यों जाते हैं ?

– *नटवर पारीक*, डीडवाना

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