आचार्य महाश्रमण ने रचा अहिंसा यात्रा का स्वर्णिम इतिहास

lalit-garg
दिल्ली में राष्ट्रीय गौरव दिवस पर हिंसा, अराजकता एवं उपद्रव का जहां एक काला पृष्ठ रचा गया, वही दूसरी ओर सुदीर्घ लम्बी पदयात्राओं के निमित्त से आयोज्य आचार्य श्री महाश्रमण की ‘अहिंसा यात्रा’ ने हिंसा, अराजकता और युद्ध के माहौल में अहिंसक जीवनशैली, अहिंसा की प्रतिष्ठापना और उसके प्रशिक्षण का एक सफल उपक्रम बनाकर पचास हजार किलोमीटर की 23 प्रांत एवं 3 पडौसी देशों की यात्रा की सम्पूर्णता का अनूठा एवं प्रेरक इतिहास रचा है। इस अहिंसा यात्रा ने समूची दुनिया को अहिंसा की शक्ति से अवगत कराते हुए बड़ी शक्तियों एवं विभिन्न राष्ट्रों को हिंसा, युद्ध एवं संघर्ष-मुक्त संबंधों के लिए प्रेरित किया है। अहिंसा की उपादेयता हर कालखण्ड में अनिवार्य रूप से रही है। हिंसा के विविध रूप अपने मुखौटे बदल कर अलग-अलग देशों की समाज व्यवस्थाओं को प्रभावित करते रहते हैं। उनके परिष्कार के लिए ‘‘हिंसा का बदला हिंसा से’’ की मनोवृत्ति को जहां सत्यापित किया गया है वहां भारत जैसे कुछ देशों में हिंसा का जवाब अहिंसा से देने की सार्थक कोशिशें की हैं। वक्त का पहिया तेजी के साथ घूम रहा है। विगत अर्द्धशताब्दी में समूचे विश्व में अनेक समीकरण बदल चुके हैं और नये समीकरणों का निर्माण भी हुआ है। एक ओर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में असंभव दिखाई देवे वाली सफलताएं प्राप्त हुई, वहीं विध्वंसक सोच, अहं और टकराव की मनोवृत्ति, शीतयुद्ध एवं धर्म आधारित गुटबंदी ने भी अपने पांव पसारने शुरू कर दिये हैं। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए घोषित छदम् उग्रवाद ने पूरे विश्व में अशांति स्थापित कर दी है और आज वे उग्रवादी अपनी जन आकांक्षाओं को भी बख्शने के मूड में नहीं हैं, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया, उनका पोषण किया। अपने-पराये की बात को तो छोड़ दें, अपनों पर विश्वास की चूलें भी हिल उठी हैं।
आचार्य श्री महाश्रमण ने अपनी अहिंसक चेतना से समूचे राष्ट्र एवं पडौसी देशों के जनजीवन में सांप्रदायिक सद्भाव, भाईचारा, प्रेम, आपसी विश्वास, अहिंसक मूल्यों की स्थापना एवं जीवन मूल्यों को प्रतिस्थापित करने में बहुमूल्य योगदान दिया है, जिसकी अनुगूंज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सुनाई दी है। कोरोना महामारी हो, पाकिस्तान एवं चीन की युद्ध मानसिकता या हाल ही हिंसा की घटनाएँ ऐसा वीभत्स एवं तांडव नृत्य कर रही हैं, जिससे न केवल देश की जनता बल्कि संपूर्ण मानवता प्रकंपित है। विद्वेष, नफरत एवं घृणा ने ऐसा माहौल बना दिया है कि इंसानियत एवं मानवता बेमानी से लगने लगे हैं। इस जटिल दौर में सबकी निगाहें उन प्रयत्नों की ओर लगी रही हैं, जिनसे इंसानी जिस्मों पर सवार हिंसा का ज्वर उतारा जा सके। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य श्री महाश्रमण की अहिंसा यात्रा इन घने अंधेरों में इंसान से इंसान को जोड़ने का उपक्रम बनकर प्रेम, भाईचारा, सांप्रदायिक सौहार्द एवं अहिंसक समाज का आधार प्रस्तुत किया है।
भारत की माटी में पदयात्राओं का अनूठा इतिहास रहा है। असत्य पर सत्य की विजय हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा की हुई लंका की ऐतिहासिक यात्रा हो अथवा एक मुट्ठी भर नमक से पूरा ब्रिटिश साम्राज्य हिला देने वाला 1930 का डाण्डी कूच, बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा हो अथवा राष्ट्रीय अखण्डता, साम्प्रदायिक सद्भाव और अन्तर्राष्ट्रीय भ्रातृत्व भाव से समर्पित एकता यात्रा, यात्रा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भारतीय जीवन में पैदल यात्रा को जन-सम्पर्क का सशक्त माध्यम स्वीकारा गया है। ये पैदल यात्राएं सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। लोक चेतना को उद्बुद्ध कर उसे युगानुकूल मोड़ देती हैं। भगवान् महावीर ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रदेशों में विहार कर वहां के जनमानस में अध्यात्म के बीज बोये थे। जैन मुनियों की पदयात्राओं का लम्बा इतिहास है। वर्ष में प्रायः आठ महीने वे पदयात्रा करते हैं। लेकिन इन यात्राओं की श्रृंखला में आचार्य श्री महाश्रमण ने नये स्तस्तिक उकेरे हैं।
अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य महाश्रमण तो इस युग के महान् यायावर हैं। वे नंगे पांव पदयात्रा करते हैं। शहरों, देहातों, खेड़ों और ग्रामीण अंचलों में जाकर सामूहिक एवं व्यक्तिगत जनसम्पर्क करते हैं। समाज के नैतिक और आध्यात्मिक स्तर को उन्नत बनाने तथा चरित्र और अहिंसा का प्रशिक्षण देने हेतु धर्म, दर्शन, इतिहास, अणुव्रत और सामयिक समस्याओं पर चर्चा करते हैं। लोगों को व्यसनों से मुक्त कर उनकी चेतना में नैतिक उत्क्रांति के बीज वपन करते हैं, समस्त पूर्वाचार्यों से एक विशेष कालखं डमें सर्वाधिक लम्बी पदयात्रा करने के फलस्वरूप आचार्य श्री महाश्रमण को ”पांव-पांव चलने वाला सूरज“ संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने तो यहां तक कहा है कि ”आचार्य श्री महाश्रमण अहिंसा की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं, आपकी अहिंसा यात्रा नैतिक क्रांति की मशाल बनकर मानव-मानव को अध्यात्म के प्रशस्त पथ पर सतत अग्रसर होने की प्रेरणा दे रही है।“
जीवन अपने आप में एक यात्रा है, निरन्तर गतिशील, प्रवाहपूर्ण जल की भांति। आचार्य श्री महाश्रमण की अहिंसा यात्रा के संदर्भ में नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली का कथन है, ” आचार्य महाश्रमण ने विश्व शांति की भावना से बड़ी कठिनाइयों को सहकर नेपाल की यात्रा की है। वे लम्बी पदयात्राओं के द्वारा अहिंसा के सन्देश को फैलाने का महाअभियान चला रहे हैं।’ निश्चित ही आचार्य महाश्रमणजी आत्मरंजन या लोकरंजन जैसी धुंधली जीवन दृष्टि से प्रेरित होकर परिव्रज्या नहीं करते। उनके सामने उद्देश्य है-समाज के मूल्य मानकों में परिवर्तन कर उसे ऊँचे जीवन मूल्यों के अनुरूप ढालना। मानव जीवन के अंधेरे गलियारों में चरित्र का उजाला फैलाना। यात्रा जल की हो या मनुष्य की, उसकी अर्थवत्ता का आधार सदैव समष्टि का हित ही होता है। जल का प्रवाह धरती के कण-कण को हरियाता है, तो रस धार बन जाता है और यायावर समाज का निर्माण और उत्थान करता हुआ निरन्तर आगे बढ़ता है, तो कहलाता है युग पुरुष, युग निर्माता।
निश्चित ही आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आज अपने पावन कदमों से पदयात्रा करते हुए 50000 किलोमीटर के आंकड़े को पार कर एक नए इतिहास का सृजन कर लिया। देश की राजधानी दिल्ली के लालकिले से सन् 2014 में अहिंसा यात्रा का प्रारंभ करने वाले आचार्यश्री ने न केवल भारत अपितु नेपाल, भूटान जैसे देशों में भी मानवता के उत्थान का महत्वपूर्ण कार्य किया है। आचार्यश्री देश के राष्ट्रपति भवन से लेकर गांवों की झोंपड़ी तक शांति का संदेश देने का कार्य किया हैं। आचार्यश्री की प्रेरणा से हर जाति, धर्म, वर्ग के लाखों-लाखों लोगों ने इस सुदीर्घ अहिंसा यात्रा में अहिंसा, सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति के संकल्पों को स्वीकार किया है।
कच्छ से काठमांडू और कांजीरंगा से कन्याकुमारी तक ही नहीं, पाकिस्तान और बांगलादेश की सीमा से लगे भारत के सीमांत क्षेत्रों में भी आचार्यश्री की पदयात्रा का प्रभाव देखने को मिला है। आचार्य श्री महाश्रमणजी अपनी पदयात्राओं के दौरान प्रतिदिन 15-20 किलोमीटर का सफर तय किया। जैन साधु की कठोर दिनचर्या का पालन और प्रातः चार बजे उठकर घंटों तक जप-ध्यान की साधना में लीन रहने वाले आचार्यश्री प्रतिदिन प्रवचन के माध्यम से भी जनता को संबोधित करते रहे हैं। इसके साथ-साथ आचार्यश्री के सान्निध्य में सर्वधर्म सम्मेलनों, प्रबुद्ध वर्ग सहित विभिन्न वर्गों की संगोष्ठियों आदि का आयोजन होता रहा है, जो समाज सुधार की दृष्टि से अत्यंत लाभप्रदायक सिद्ध हुआ हैं। प्रलंब पदयात्रा में आचार्यश्री के साहित्य सृजन का क्रम भी निरंतर चलता रहा है। चरैवेति-चरैवेति सूत्र के साथ गतिमान आचार्यश्री की यह 50000 किलोमीटर की यात्रा अपने आप में विलक्षण है। आंकड़ों पर गौर करें तो यह पदयात्रा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से 125 गुना ज्यादा बड़ी और पृथ्वी की परिधि से सवा गुना अधिक है। यदि कोई व्यक्ति इतनी पदयात्रा करे तो वह भारत के उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर अथवा पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर तक की 15 बार से ज्यादा यात्रा कर सकता है।
आचार्य श्री महाश्रमण ने अपने जीवन में अहिंसा के अनेक प्रयोग किए। वे कहते हैं अहिंसा का पथ तलवार की धार से भी अधिक तीक्ष्ण है। इस स्थिति में कोई भी कायर और दुर्बल व्यक्ति इस पर चलने का साहस कैसे कर सकता है?“ ऐसे ही दृढ़ संकल्पों के साथ आचार्य श्री महाश्रमणजी ने अहिंसा को जन-जन में प्रतिष्ठित करने का संकल्प लिया है। फिर कायरता अहिंसा का अंचल तक नहीं छू सकती। सोने के थाल के बिना सिंहनी का दूध कहाँ रह सकता है? इसी प्रकार अहिंसा का वास वीर हृदय को छोड़कर अन्यत्र असंभव है। यह अटल सत्य है। जिस प्रकार भय दिखाना हिंसा है उसी तरह भयभीत होना भी हिंसा ही है। आचार्य महाश्रमणजी के संकल्पों एवं उपक्रमों में अपने आपको जोड़कर जीवन को धन्यता का अनुभव दें।
(ललित गर्ग)
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