*इससे बुरा समय और क्या आएगा*

-अब तो कुछ लिखने में हाथ और बोलने में जुबान भी कांपने व लड़खड़ाने लगी है
-दिल और दिमाग के सारे तार झनझना जाते हैं

✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
👉कोरोना जिस तरह का कहर बरपा रहा है और लोगों को अपने क्रूर पंजों में जकड़ कर असमय ही मौत के मुंह में धकेल रहा है, उससे हर कोई बरबस निःशब्द हो जाता है। उस वक्त बहुत ही दुखद और असहनीय पीड़ा होती है, जब बेटा या बेटे अपने पिता या माता, भाई अपने भाई या बहन की अर्थी को कंधा तक नहीं लगा पाते हैं। पत्नी आखिरी समय अपने पति का मुंह तक नहीं देख पाती है, ना हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार पति की अर्थी के चारों ओर घूमकर फेरे उधेड़ पाती है, ना सुहाग की चूड़ी तोड़ पाती है। ना बेटे अपने माता-पिता की चिता को मुखाग्नि दे पाते हैं और ना ही कपाल क्रिया कर पाते हैं।

प्रेम आनंदकर
ना भाई अपनी बहन को आखिरी समय चुनड़ी ओढा पाते हैं।किसी की आंखें पथरा जाती हैं तो किसी की आंखों से आंसू सूख नहीं पाते हैं और आंसुओं की धारा अविरल बहती रहती है। कोरोना से मरने पर शव घर लाकर धार्मिक और सामाजिक क्रियाएं करने की बजाय अस्पताल से सीधे श्मशान घाट ले जाए जा रहे हैं। श्मशान घाट पर भी चिताओं की लाइन लगी हुई रहती है। सुबह से ही शवों के पहुंचने का सिलसिला शुरू होता है, जो देर शाम क्या अब तो देर तक तक चलता रहता है। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सूर्यास्त होने के बाद अंतिम संस्कार नहीं होता है, लेकिन अब तो रात 11-12 बजे तक शवों को अस्पताल से सीधे श्मशान घाट ले जाकर अंतिम संस्कार किया जा रहा है। परिवारजन भी दूर खड़े हो जाते हैं और श्मशान में सेवाएं देने वाले वीर योद्धा ही सारी रस्में निभा रहे हैं। ऐसे योद्धाओं को सलाम। हे भगवान! अब तो इस धरा पर रहम करो। मौतों के सिलसिले को थामो।

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