व्यंग्य-बी पोस्टिव

रासबिहारी गौड
डॉक्टरी रिपोर्ट में पोस्टिव आने के बाद माननीय एकाएक काफी पोस्टिव हो गए हैं। हर बीमार या बीमारी से डरने वाले को पोस्टिव रहने की नसीहत फ्री आयुवैदिक काढ़े की तरह बाँटते रहते हैं।
उस दिन हमसे पूछने लगे-
” भाई जी, क्या चल रहा है..?”
हम भी लॉक डाउन की सड़कों से बिल्कुल खाली थे। सन्नाटे को तोड़ते हुए बोले-
” कहाँ..? क्या चल रहा है..? सब रुका पड़ा है..। ”
उन्होंने अचानक योगा वाले बाबा दार्शनिक मुद्रा अपनाई-
” वो तो ठीक है..। बट, बी पोस्टिव..। जीवन चलाना पड़ता है। चलने का नाम ही साँस है..। साँस है तो आस है..।”
बात थोड़ी गहरी थी। कोई और मौसम होता तो उसमें डूबा जा सकता था, लेकिन इन दिनों बिना डूबे ही समझ मे आ रही थी।
“सारा चक्कर ही साँस का है। लोगो को साँस नहीं मिल रही। परसो पाँच नम्बर वाले मेहता जी को नहीं मिली । तीन दिन पहले मिश्रा जी निकल लिए…।”
सूचना देते हुए हमनें जोर से साँस ली। अपनी साँस चेक की।
“हाँ, ये तो है…। बट, बी पोस्टिव..”
माननीय ने बुरे समय को अपने ‘बी पोस्टिव..’ से ऐसे दबा दिया जैसे कोई पीछे से फटी पेंट को शर्ट नीचे कर छुपा लेता है।
हमनें एक बार फिर कोशिश की-
” अजी साहब, चारों ओर मौत-मातम है। अफरा तफरी मची हुई है। कोई कुछ नहीं कर रहा। सरकारे हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं।”
“सरकार..! सरकार क्या कर लेगी..?”
सरकार शब्द पर उन्होंने ऐसे झपट्टा मारा जैसे स्लिप में खड़ा खिलाड़ी हवा में उछलती गेंद को लपक लेता है। लगभग लताड़ते हुए बोले-
“हर बात के लिए सरकार की तरफ देखते हो। एक अकेली सरकार क्या क्या करें..? तुम्हें शर्म नहीं आती! तुम क्या कर रहे हो.? मरने वाला मेहता क्या कर रहा था..? खुद कुछ मत करो..। एक सरकार की आलोचना के सिवाय..।”
उनके गुस्से में आत्मीय किस्म तिरस्कार था। चूंकि हमें खुद अस्पताल से आये तीन दिन ही हुए थे। अतः वैधानिक बीमार की तरह अपना पक्ष रखा-
“माननीय, मेरा निजी अनुभव है। एक सप्ताह अस्पताल में बिताया है। बीमार और बीमारी का आलम देखकर खुद से डर लगने लगा है….।”
वे विजयी भाव से मुझे घूरने लगे जैसे मैंने खुद का गुनाह कबूल कर लिया हो। सरकार को क्लीन चिट दे दी हो।
” हर तरफ़ बीमार। यही तो असली जड़ है तुम और तुम्हारा समाज बीमार है। फिर भी कमियां सरकार में ढूंढ रहे हो..।”
मैंने सीधे-सीधे कहा-
“आप समझ नहीं पा रहे हैं। यहाँ बीमारी का जिक्र व्यंग्य के अर्थों में नहीं है। रोज लाखो लोग कोरोना की जद में आ रहे हैं। हजारों मर रहे हैं। लेकिन सरकार …”
“तो सरकार क्या करें..? क्या वह बीमारी लाई है..? क्या वायरस सरकारी है ? उसके पास और काम नहीं हैं..? हर बात में नेगेटिविटी.! सरकार की आलोचना..!”
उनका आग्रह देख हम सचमुच सोचने लगे,
“सरकार जरूर कुछ कर रही होगी। हम कुछ नहीं कर रहे। हमें कुछ करना चाहिए..।”
धीरे से पूछ बैठे-
” माननीय, हमें क्या करना चाहिए..? समय पर टैक्स दे दिया। दो साल से ड़ी. ए. की किश्त नहीं ले रहे हैं। पी. एम. केयर फण्ड में सेलरी से कटौती करवाई है। कोई हिसाब नहीं किया। कोई सवाल नहीं किया। सरकार के कहने से महीनों बंद रहे । ताली, थाली, दिए से लेकर दिल तक जलाए। बच्चों की पढ़ाई- लिखाई, शादी -ब्याह तक भूल गए। रिश्तेदारों ने नौकरियां दे दी। मजदूरों ने जानें दे दी..। अब बताओं हमें क्या करना है..?”
माननीय को हमसे इस किस्म की उम्मीद नहीं थी। इसलिए बिना गौर किये अपनी बात कहे जा रहे थे-
“आपका पाँच मेंबर का परिवार है। उसका बोझ उठाने में टैं बोल रही है। सरकार को 130 करोड़ लोगों के बारे में सोचना होता है..। हँसी खेल नहीं है देश चलना…समझे..!”
समझे का अकाट्य वाक्य बोलकर वे हमारी ओर ऐसे देख रहे थे जैसे टीवी के रियलिटी शो में बेसुरे गायक को, गायकी से विदा ले चुके सेलेब्रिटी जज, देखते हैं।
वैसे भी इन दिनों हल्की सी छींक आने पर खुद के मेहता जी बनने का डर हमारे भीतर उसी तरह धँस गया था जैसे सपने में अपनी मौत देखकर जागने के बाद आवाज में कुछ अटका रह जाता है। हमनें माननीय से उसी अटकी आवाज में कहा-
” जिसका आदमी मर गया, वह कैसे ‘बी पोस्टिव..’ हो सकता है..? सारे संसधान, सहयोग, नीति, नियम, कायदे, ताकत सरकार के पास है। एक असहाय नागरिक के पास तो आवाज ही होती है..। आजाद भारत मे अगर अस्पताल में साँसे नहीं है। श्मशानों में जगह नहीं है। मौत दरवाजे पर दस्तक दे रही है। आंकड़ों का खेल हो रहा हैं, फिर भो अगर हम चुप हैं तो हममें और मुर्दों में क्या फर्क रह जायेगा…?”
सीधे सवाल पर माननीय को जब कोई सीधा तर्क नहीं सूझा तो महाभारत स्टाइल में अपना अचूक दिव्यास्त्र छोड़ा-
“आपकी आँखों ओर विरोध का चश्मा चढ़ा हुआ है। आप बायस्ड हैं। आपको सरकार में कभी कोई अच्छाई नहीं दिखती। ऐसे समय भी नेगेटिविटी फैला रहे हो..। पोलटिक्स कर रहे हो। देश और सरकार की छवि खराब कर रहे हो..। शर्म करो….!”
इससे पहले कि वे संवाद का पटाक्षेप करते, आखिरी और जरूरी सवाल की तरह हमने पूछ ही लिया-
“लेकिन, ये बेवक्त की मौतें हमसे क्या कह रही है..? बंगाल में चार राजनीतिक कार्यकर्ता के मरने पर लोकतंत्र की हत्या हो जाती है। एक गाय के मरने पर धर्म का नाश हो जाता है। हथिनी के लिए पूरी सरकार पानी मे उतर जाती है..परन्तु गंगा में बहती लाशें हमें ही अपने कंधों पर ढोनी है.!”
“तुमसे बात करना ही बेकार है। लाश..लाश..लाश..टोटल नेगेटिविटी..!नकरात्मक सोच..। अरे कुछ सकरात्मक बनो..पोस्टिव बनो।..बी पोस्टिव..। तुम्हारा तो ब्लड ग्रुप भी ‘बी पोस्टिव’ है। ”
जाते-जाते ‘बी पोस्टिव’ का ऐसा राग अलाप कर गए कि सकरात्मकता के सारे सुर हमें बेसुरे से लगने लगे।
आजकल नेगेटिविटी से नही पोस्टिव होने से डर लगता है।

रास बिहारी गौड़

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