*राजस्थान का हृदय – अजमेर शहर* *और हृदय में प्रतिष्ठित आत्मा – प्रताप

जांगलेश नायकों द्वारा बसाया गया अजयमेरू जो अजमेर के नाम से वर्तमान में जाना जाता है। विदिशी तुर्की आक्रान्ताओं के प्रतिरोध में यहाँ तलवार एक बार नहीं कई बार उठाई गई थी। विश्व की प्राचीनतम पवर्त श्रृंखलाओं में से एक अरावली जो सदैव अपने विस्तार और प्रसार क्षेत्र में माँ की तरह अपने निवासी पुत्रों की रक्षा और पोषण करती रही है। उसी उपत्यका का एक भाग ‘नाग’ के नाम से अजमेर नगर की सुरक्षा, सुन्दरता एवं मनोरमता का अद्भुत कलेवर धारण कर नागराज की तरह अजमेर रूपी ‘मणी’ को धारण किये हुए है। इस ऐतिहासिक विरासत में ‘सोने पर सुहागा’ वाली कहावत को चरितार्थ किया राष्ट्रप्रेमी श्री धर्मेश जैन ने जो 2006 से 2008 तक नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष थे। जिन्होंने स्थान का चयन ‘पुष्कर’ घाटी में किया। वहीं पुष्कर क्षेत्र जो सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की तपोस्थली रही और तीर्थराज की मान्यता लिए हुए है।आज ब्रह्मा मंदिर के कारण विश्व विख्यात है ।यह सनातन धर्म में त्रिवेणी प्रयाग सम तीर्थ माना जाता है। पुष्कर के मार्ग की घाटी में इस स्थान का चयन बहुत कुछ कह देता है – मानो यह घाटी कह रही हो – ‘राष्ट्र से बड़ा देवता कौन और राष्ट्रभक्त से स्वयं ब्रह्मा भी कैसे दूर रहे। ‘ सृष्टिकर्ता भीअपने उत्कृष्ट सृजन प्रताप को अपनी तपोभूमि में मूर्तिस्थ पा कर प्रसन्न है। लगता है इस स्थान का चयन प्रभुकार्य ही है, सामान्य कार्य नहीं।
प्रताप भी तो कर्म सन्यासी थे, कर्मयोगी थे, कर्मतपस्वी थे, उनकी चेतना की शक्ति आज भी भारतवासी ही नहीं अपितु विदेशी पर्यटकों के मन में भी स्वदेशाभिमान जागृत कर देती है।
अत: मेरा मानना है जो नगर अजमेर राजस्थान राज्य का हृदय कहलाता है उस हृदय में प्रताप का स्पंदन राष्ट्र देवता की आराधना के लिये आवश्यक था। इस हेतु धर्मेश जैन की सोच प्रसंसनीय है।

”अजमेर में क्यों आवश्यक था प्रताप का विग्रह ?
यह एक बड़ी जिज्ञासा हो सकती है। इतिहासकार के नाते मेरा मानना है कि विदेशी आक्रान्ताओं (मुगलों) ने विशेष रूप से अकबर ने राजपूताना में अपने साम्राज्य को विस्तार देने के लिये अजमेर को चुना। इसके कई कारण थे यथा –
राज्य का मध्य भाग, अजमेर मेरवाड़ा-मारवाड़ और मेवाड़ की सीमाओं से जुड़ा हुआ था। जयपुर (आमेर) एवं मारवाड़ को अपने अधीन करने के बाद उसका एक ही स्वप्न था मेवाड़। अजमेर दरगाह शरीफ होने और हज का मार्ग होने से अकबर के लिये यह मज़हबी विषय भी था साथ ही व्यापार – वाणिज्य का केन्द्र भी। अत: मेवाड़ को हस्तगत करने के लिये उसे सीमा पर द्वार की जरूरत थी। यहाँ से अकबर ने अपने पांव मेवाड़ में पसारने शुरू किये और अपनी सेना का केन्द्र भी अजमेर को बनाकर मेवाड़ के सीमास्थ दिवेर पर अपनी सैन्यचौकी बनाई थी।जिसे प्रताप ने हल्दीघाटी का युद्ध फतह करने के कुछ वर्षों बाद विजयादशमी को आक्रमण कर मुगलो को भगाया था।
लेकिन अकबर का यह स्वप्न आजीवन अधूरा ही रहा। इस स्वप्न को अधूरा रखने वाला नायक था प्रताप। अत: जिसे मुगलों ने ‘सूबा’ बनाकर अपने शक्ति विस्तार के केन्द्र के नाते बरसों उपयोग किया हो वहाँ पर प्रताप की प्रतिमा शक्ति संपात का कार्य करेगी और भारत राष्ट्र के स्वतंत्र राष्ट्र होने की उद्षोषिका भी।
प्रताप कालीन ‘विश्ववल्लभ’ ग्रन्थ कृषि, पर्यावरण, जल प्रबन्धन का ग्रन्थ माना जाता है। उसी मनीषा का परिचायक इस घाटी का वो परिवेश भी है जहाँ यह मूर्ति है। पूर्णत: प्राकृतिक परिवेश, जीवनदायीनी शक्ति वायु सुगन्धित है। निश्चय ही यह राष्ट्रभक्तों के लिए तीर्थ के रूप में और जिज्ञासुओं, भ्रमण प्रेमियों के लिये एक खूबसूरत पर्यटन स्थल के रूप में अजमेर के विकास के विभिन्न आयामों में से एक प्रभावशाली आयाम सिद्ध होगा।

*डॉ. चन्द्रशेखर शर्मा*
सह-आचार्य, इतिहास विभाग
राज. मीरा कन्या महाविद्यालय, उदयपुर (राज.)
इतिहासकार (महाराणा प्रताप पर देश की प्रथम पी.एच.डी. धारक)

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