जो मनुष्य किसी भी पदार्थ, वसतु, कर्म, जीवात्मा, आतमा, ब्रह्म आदि के सत्य को जानता है उसे तत्वदर्शी महात्मा कहते हैं। जिस तरह भोतिक पदार्थ का सत्य परमाणु है ; परमाणु का सत्य विद्युत आवेशी प्रवृत्ति एवं सूक्ष्मतम कण क्चार्क आदि हैं ; और यह सब जानने वाले को वैज्ञानिक कहते हैं। उसी तरह जो मनुष्य शरीर के 24 तत्वों को, अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार ) को, ं जीवात्मा को, जीवात्मा से परे आत्मा को, फिर इस से भी सूक्ष्म परमात्मा को तथा परमात्मा से भी परे ब्रह्म को जानता है ; यह सब हृदय में प्रत्यक्ष कर चुका है, उसे तत्वदर्शी महातमा कहते हैं। गुरु भी यही होता है।
ऐसे महातमा की दो विशेषताएं होती हैं – वह ब्रह्मज्ञानी होता हे एवं शास्त्रों का भी पंडित होता है। ब्रह्म, जीव, आत्मा , सृष्टि आदि के बारे में जो कुछ भी वैदिक ग्रंथों में लिखा हुआ है, वह सब कुछ जानता है। उसे लोक देवता, ग्राम देवता, मातृ शक्तियां, यज्ञ देवता, 33 कोटि देवता एवं ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है।
इस के अतिरिक्त ऐसा महातमा कर्म, ज्ञान एवं भक्ति को सम्पूर्णता से जानता है – भक्ति यानी श्रद्धा, समर्पण भाव, प्रेम, रति और आनंद। ज्ञान यानी देह, अंतः करण, मन, बुद्धि, अहंकार, जीव, आत्मा, परमात्मा, अक्षर ब्रह्म एवं पर ब्रह्म। कर्म अर्थात् सकाम (फलासक्ति, कर्तापन का अभिमान), निष्काम कर्म यानी निरहंकार, फल में अनासक्ति, प्रभु के निमित्त भाव या समर्पण भव से केवल कर्तव्य कर्म करना या स्वधर्म का पालन करना। इसीलिए गुरु अपने शिष्य को समझा सकता है कि कर्तव्य कर्म करते करते, भकित कर्म करते करते और ज्ञान कर्म की निरंतरता का यानी इन सब का परिणाम ब्रह्म तक पहुंचना ही है। अकर्मण्य ज्ञान, अकर्मण्य भक्ति एवं अकर्म (कर्म नहीं करना) ; यह सब मनुष्य को भ्रमित करते हैं, उसके जीवन को विफल कर देते हैं।
ग्ीता में तत्वदर्शी गुरु के व्यक्तित्व में इतना विस्तार बताया गया है।