मेरा बचपन

बचपन, एक ऐसा मीठा शब्द जिसे सुनते ही लगता है जैसे गुड़ खा लिया, बचपन की नन्ही-मुन्नी यादें जब हृदय में उमड़ती है तो होठो पर मुस्कान तिर जाती है। जीवन का सबसे स्वर्णिम अध्याय बचपन ही होता है। मनुष्य बड़ा होने पर अपने बच्चों में अपना बचपन खोजता है। मैंने भी अपने बचपन को अपनी इकलौती संतान अपनी बिटिया में खोजा। बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब बिना किसी तनाव के, मस्ती से जीवन का आनन्द लिया जाता है। फूलों-सी खिलती हँसी, शरारतें, रूठना, मनाना, जिद पर अड़ जाना ये सब बचपन की पहचान होती है। सच कहें तो बचपन ही वह वक्त होता है, जब हम दुनियादारी के झमेलों से दूर अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं।
वही बचपन जो मिट्टी के छोटे-छोटे घरोंदे बनाता है। तमाम चिन्ताओं से मुक्त रखता है। बचपन यानी कुल जमा मस्ती की हंसती गाती फूलों वाली पाठशाला।
अब जब आपने हमें बचपन की ओर धकेला तो बेटी इरा को आश्चर्य हुआ श्हैंऽऽऽ गिल्ली-डंडा, कंचे खेलना, सितोलिया खेलना, मिट्टी के घरौंदे बनाना? ये कौन-से खेल हुए?श् अब उसे कैसे बताऊं कि आज के बच्चों का बचपन तो नीरस है। मोबाइल, कंप्यूटर और इंटरनेट ने बचपन को सीधा ही कैच कर लिया है। कपड़ों तक पर कोई मैल नहीं, चमाचम साफ-सुथरे। भई हमारे समय में तो जो भी खेल होते थे, बहुत ही मजा आता था। हमारे बचपन का सीधा संबंध धूल और मिट्टी से था।
धूल-मिट्टी की वह मीठी और महकती गंध भावनाओं में उतर कर ह्रदय को कैसे छू गई, उसे आज भी शब्दों में पिरोकर व्यक्त करना मुश्किल है। घर के आंगन में गमलों में खिले फूलों पर मंडराती रंग-बिरंगी तितली को देखकर, बरसात के दिनों में इन्द्रधनुषी छटा देखकर, सड़क पर बहते पानी में कागज की नाव चलाकर मन गाने-गुनगुनाने लगा। यह गुनगुनाहट ही धीरे-धीरे कागज पर उतरने लगी, पता ही नहीं चला। दौडने लगे कल्पनाओं के घोड़े। घर में कभी कोई चूहा दिखाई दे जाता तो पूरा घर उसे पिंजरे में कैद करने की जुगत लगाता और हमारा मन चूहे राजा पर कहानी लिखने को होता। लालच बुरी बला शीर्षक से जो कहानी स्कूल में सुनी उसी तर्ज पर हमने भी चूहे पर कहानी लिखी। कैसे वह घी लगी रोटी को सूंघता हुआ पिंजरे में आया। कैसे खट् से पिंजरे का दरवाजा बंद हो गया। और करो चूहे राजा लालच। फिर पिताजी के साथ-साथ हम भी उस चूहे को दूर जाकर छोड़ आए। यह सीख देते हुए कि अब लालच नहीं करना। लेकिन उसका पिंजरे से बाहर कूद कर सरपट दौड़ लगाकर झाडियों में छिप जाना भी हमें यही सिखा गया कि जान बची तो लाखों पाये। गुटरगूं करते कबूतर, आंगन में चहचहाती गौरैया, एक्वेरियम में रंग-बिरंगी मछलियां, पालतू मिट्ठू और कुतिया फैनी, पर भी हमारी कलम चली। फैनी का जिम्मा सुबह-सुबह हमें उठाने का था। मेरा बिस्तर जहां था, उसके ऊपर मिट्ठूराम का पिंजरा लटका रहता था। उठने में देरी होती तो मिट्ठूराम भी टें-टें करने लगते।
एक दिन रविवार के अखबार में एक कहानी में पात्र का नाम पढने को मिला-सुधीर। उस नाम को पढ़ कर बहुत खुशी हुई। घर में सबको बताया, आज हमारा नाम अखबार में छपा है। सब मुस्कराए। दोस्तों को बताया तो दोस्त हंसे। शायद हमारी मूर्खता पर। फिर तो जब भी कभी किसी बाल-पत्रिका, अखबार में सुधीर नाम छपा देखते, मन प्रसन्नता से भर उठता।
कहते हैं, हर एक के बचपन में एक पल ऐसा भी आता है जब कोई खिड़की खुलती है, और भविष्य एक संकेत दे जाता है। मेरे मामले में भविष्य का संकेत मिलने का वह पल अनायास ही आ गया। उम्र रही होगी लगभग बारह वर्ष। अजमेर में, केसरगंज स्थित एक दैनिक अखबार नवज्योति के कार्यालय में बिना किसी को बताए एक कागज दे आया। मुझे नहीं मालूम कि वह कागज ही भविष्य का संकेत कर रहा था। जिन सज्जन को कागज देकर आया, वह उसे सरसरी नजर से पूरा पढ़कर, नीचे मेरा नाम देखकर मुस्कराए, हूं….. मुंह में शायद पान था सो केवल सिर हिला दिया। मैं वापिस लौट आया। दो दिन बाद रविवार था। घंटे, पल थे कि बीत ही नहीं रहे थे। उस दिन शायद मैं घर के अन्य सदस्यों से भी पहले ही उठ गया था। धड़कते दिल से बार-बार घर के मुख्य दरवाजे की ओर देखता। तभी आवाज आई पेपर! मैं दौड़कर अखबार उठा लाया। जल्दी-जल्दी पन्ने पलटने लगा। और तभी एक पन्ने पर अपनी लिखी-छपी रचना….. उसके नीचे अपना नाम छपा देखकर रोमांचित हो गया। मन प्रसन्नता से भर गया। फिर तो उस दिन घर के सदस्यों के अतिरिक्त जितने लोगों को अपनी छपी रचना दिखा सकता था, दिखाई। बहुत दिन बाद समझ में आया कि उनका वह मुस्कराना और सिर हिलाना ही रचना प्रकाशन की स्वीकृति थी। और जिनसे मिला था उन्हें संपादकजी कहते हैं। वहां स्व. श्री मोहनराज भंडारी तथा श्यामजी बहुत स्नेह दर्शाते थे। फिर तो प्रायरू ऐसा होने ही लगा।
लिखने की ललक के पीछे संभवत मेरे मामाजी कवि, लेखक, नाट्य निर्देशक श्री मंगल सक्सेना जी (राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व सचिव, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के पूर्व अध्यक्ष) की प्रेरणा रही। आज भी कहीं कुछ छपता है तो उन्हें अवश्य ही सूचित करता हूं। बचपन से ही प्रतिष्ठित लेखकों के नाम सुनना, उन्हें बीकानेर, उदयपुर, अजमेर आदि स्थानों पर देखना, उनसे मिलना, हमेशा सुखद अनुभव रहा। उनका दुलार-स्नेह भी मिलता रहा, जैसे श्रद्धेय हरिभाऊ उपाध्याय, जनार्दन राय नागर, कर्पूर चन्द्र कुलिश, विश्वदेव शर्मा, डॉ. रामगोपाल गोयल, ओंकारश्री, यादवेन्द्र शर्मा श्चन्द्रश्, हरीश भादाणी, प्रकाश जैन, डॉ. शान्ति भारद्वाज श्राकेशश् (अब सभी स्मृति-शेष)आदि। इनके अलावा श्री अकिंचन शर्मा, डॉ. ताराप्रकाश जोशी, डॉ. मनोहर प्रभाकर, डॉ. हरीश, श्री मनोहर वर्मा भी हैं। थोड़ा बाद में तो सर्व श्री अनिल माहेश्वरी, वेद माथुर, अनिल लोढ़ा, सुरेन्द्र चतुर्वेदी, गोपाल गर्ग, सुरेन्द्र दुबे, शमेन्द्र जड़वाल, आदि सभी बड़े भाई की ही तरह स्नेह करते रहे। आज भी वैसा ही स्नेह मिलता है। ये सभी मेरे कच्चे-पक्के लेखन के साक्षी रहे हैं। मेरे लेखन को तराशने में भी इनका सहयोग रहा है। एक और नाम याद आ रहा है, स्व. श्री कृष्णगोपाल गुप्ता (गोपाल भैया) का जो मेरी कविताओं को बहुत धैर्य से सुनते थे।
मैंने गद्य-पद्य दोनों में लिखा और खूब ही लिखा। हां, लगे हाथ यह भी बता दूं कि पटना से तब एक पत्रिका निकलती थी श्बालकश्। उसमें छपने के लिए एक कार्टून भेजा था। कार्टून छपा और उसके एवज में पांच रुपए मिले। क्योंकि अब तक जितनी भी रचनाएं स्थानीय अखबारों में छपी थीं, वह फोकट में ही छपी थीं। इसके बारे में कुछ पता ही नहीं था। पांच रुपए के मनीऑर्डर से समझ आया कि रचना छपने पर पैसे भी मिलते हैं। यह पारिश्रमिक कहलाता है। सो यही मेरा पहला-पहला पारिश्रमिक था। लेकिन स्थानीय अखबारों में रचना प्रकाशित होने से लाभ यही होता है कि आपको निरन्तर प्रोत्साहन मिलता है। एक बाल पत्रिका जयपुर से निकलती थी-वैज्ञानिक बालक। इसमें पनडुब्बी पर एक लेख छपा था। पत्रिका स्कूल के पते पर मार्फत हेडमास्टरजी के आई थी। उन्होंने मुझे बुलाकर पत्रिका में छपा लेख देखकर मेरी प्रशंसा की, हौसला बढ़ाया और पत्रिका मुझे दे दी। मेरी खुशी का ठिकाना न था।
अब तो लिखने का चस्का लग चुका था। सो और किसी भी अन्य गतिविधियों में मन अधिक नहीं लगता था। बस, यही कि लेखक ही बनना है। शहर में अनेकानेक लोग आपको जानते हैं, यह अपने आप में ही बहुत बड़ी बात थी। घर वाले भी इस बात से खुश ही रहते थे। स्कूल में सुलेख और श्रुतिलेख का अभ्यास लगातार होने से लिखावट में भी बहुत निखार आ गया था। स्वच्छ, साफ-साफ लिखने की आदत के चलते लेखन कार्य में बहुत मदद मिली। आगे तक काम आई। आज भी बहुत अच्छा लगता है। किसी भी रचना का पहला ड्राफ्ट हाथ से ही लिखता हूं। फिर टाइप, संशोधन, परिमार्जन आदि कंप्यूटर पर ही करता हूं। यह पंक्तियां लिखते समय अनायास ही मोहल्ले में छोटा-सा स्कूल चलाने वाली लीलावती बहिनजी याद आ गईं। उनके पास मोहल्ले के लोग अपने छोटे बच्चों को भेजते थे। क से कबूतर, ख से खरगोश तथा दो एकम दो, दो दूनी चार….. उन्हीं से सीखा। वे अपने नन्हे-मुन्ने विद्यार्थियों के सुलेख और श्रुतिलेख पर बहुत ध्यान देती थीं। बाद में जब पहली कक्षा में दूसरे बड़े स्कूल में दाखिला लिया तो समझ में आया कि लीलावती बहिनजी का हमें अक्षर ज्ञान करवाने, लेखनी सुधरवाने में कितना बड़ा योगदान था। इसका श्रेय मैं उन्हें ही देता हूं।
स्कूल में बच्चों की रचनाशीलता को मंच देने और उसे प्रोत्साहित करने के लिए श्भित्ति पत्रिकाश् का प्रति शनिवार आयोजन होता था। हम विविध विषयों पर सामग्री का संकलन और चयन करते और उन्हें अपने तरीके से अपनी स्कूल की भित्ति-पत्रिका में स्थान देते। पढने की प्रवृत्ति और सृजनशीलता बढ़ाने में श्भित्ति पत्रिकाश् का भी बहुत योगदान रहा है, ऐसा मैं मानता हूं।
अब बात परिवार की। मध्यम श्रेणी के कायस्थ परिवार में जन्म मिला। दादी को तो केवल फोटो में ही देखा। दादाजी के लिए मुझे बताया गया था कि वे मेरे जन्म के एक माह बाद ही चले गए थे। उनका आशीर्वाद अवश्य ही मिला था। परिवार में माता-पिता और एक बहिन और एक भाई सहित कुल पांच लोग थे। मेरी माताजी को भी पढने का शौक था। शेष लोगों को साहित्य से कोई लगाव नहीं था। हां, जब मेरी कोई रचना छपती, उसे पढ़कर खुश जरूर होते थे। भाई-बहिन दोनों ही मुझसे बड़े हैं। मेरे घर वालों की नजर में मैं किसी चीज को पाना चाहता था तो उसे पाकर ही दम लेता था। शायद इसीलिए घर में सबसे छोटा होने के सारे सुख मेरे ही हिस्से आए। मुझे याद है, एक दिन रात के समय आठ बजे के बाद बाटा के जूते खरीदने की जिद के चलते पिताजी मुझे स्टेशन रोड स्थित दुकान पर ले गए थे। दुकान बंद करके दुकानदार ताला लगा रहा था। लेकिन मेरी जिद के आगे दुकान खोली गई और जूते खरीदे गए थे।
एक घटना और जस की तस याद है। एक बार दीपावली के अवसर पर शाम के समय आंगन में जमीन चकरी छुड़ा रहा था। फिर मन किया कि अब अनार छुड़ाए जाएं। अनार पर तीली लगाई। कुछ पल कुछ भी नहीं हुआ। लगा, अनार तो फुस्स हो गया। पता नहीं क्या सूझा कि उस पर ही हाथ मारकर दूर फेंकना चाहा। लेकिन यह क्या, अनार तो रोशनी करने लगा। इधर हाथ ही झुलस गया था। फफोले उठ गए थे। दीपावली का हंसी-खुशी का त्योहार रोने-धोने में ही बीत गया। कई दिन बाद हाथ ठीक हुआ। लेकिन निशान आज तक बाकी हैं। स्कूल में भी आगे बढ़कर कोई ऐसी शरारत नहीं की जिसकी शिकायत की जाती हो। इस तरह की बातों से दूर ही रहे।
पतंगें भी उड़ाईं, किराये पर लाई साइकिल भी खूब चलाई। फिर जब स्वयं को साइकिल मिली तो क्या कहने। खेलते-कूदते, लिखते-पढ़ते, साइकिल चलाते, उम्र कब चौदह साल से ऊपर हो गई, पता ही नहीं चला।
-सुधीर सक्सेना सुधि
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
मो. 09413418701

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