रूपिया गिरा रे, दुनियां के बाजार में ! हास्य-व्यंग्य

( 1 डॉलर= 80.79 रू. दिनांक22.9.22)
आज सुबह सुबह ही जब दूधियां सोसायटी में दूध दे रहा था जब उसके गुनगुनाने से लगा वह “झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में” (फिल्म मेरा साया-1966) वाला मशहूर गाना गा रहा होगा लेकिन पास आने पर पता लगा वह इस गाने की पैरोडी “रू. गिरा रे, दुनियां के बाजार में” गुनगुना रहा है.
कुछ जानकारों का तो यहां तक कहना है कि रू. गिरा ही नही है. अगर रू गिरता तो टन की आवाज तो होती, वह नही हुई तो कैसे माने कि रू. गिरा है. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अकेला रू. ही नही गिरा है. बाजार गिरा है यानि महंगाई बढी है. रोजगार गिरा है (बेरोजगारी बढी है). सरकार-जनता के बीच भरोसा गिरा है. लोगों में आपसी सदभाव गिरा है. जब यह सभी गिरे है तो बेचारा रू. भी गिर गया (1 डालर = लगभग 80 रू.) तो कौनसा उसने गुनाह कर दिया ? इसे भी तो सेंचुरी ही तो बनानी है, आगे-पीछे बना लेगा जैसे पेट्रोल-डीजल ने बनाई है.

शिव शंकर गोयल
आपने एक बात और देखी होगी. पहले एक रू. के सिक्कें पर अनाज की बाली बनी होती थी लेकिन अब सरकारी आदेश से उस पर ठेंगा बना हुआ है. जानकारों का कहना है कि ऐसा इसलिए है कि पहले एक रू. में अनाज मिल जाता था अब एक रू. में ठेंगा मिलता है अर्थात एक रू. भिखारी भी नही लेता. एक बार दरगाह के बाहर एक आदमी ने एक फकीर को एक रू. दिया तो उसने उसे यह कहते हुए वापस कर दिया कि ऐ सेठ ! यह एक रू नही चलेगा. इस पर उस आदमी ने इसका कारण पूछा और कहा कि आपके यहां की नगर परिषद भी तो हर यात्री टिकट पर एक रू. ही लेती है तो भिखारी ने जवाब दिया कि आपने मुझें क्या नगर परिषद की तरह गया गुजरा समझा है ?
मजें की एक बात और है कि गिरने की इस क्रिया के दौरान जब एक नेताजी से पूछा गया कि रू. कभी उछला भी है ? तो उन्होंने गर्व से कहा कि ‘क्यों नही उछला, जब जब भी किसी ने टास किया है तो यह उछला हैं.’

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