स्कूली शिक्षा की चुनौतियों को गंभीरता से लेना होगा

नया भारत एवं विकसित भारत को निर्मित करने का मुख्य आधार शिक्षा है, लेकिन भारत की ग्रामीण शिक्षा को लेकर आयी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ग्रामीण) 2023 चिन्ताजनक एवं चुनौतीपूर्ण है। इस सर्वे में ग्रामीण भारत में छात्रों की स्कूली शिक्षा और सीखने की स्थिति की तस्वीर बयां की गई है, ग्रामीण शिक्षा की इन निराशाजनक स्थितियों पर गौर करना जरूरी है। यह सर्वे 26 राज्यों के 28 जिलों में किया गया और 34,745 युवाओं तक इस सर्वे की पहुंच रही। ग्रामीण छात्रों ने जो तथ्य एवं सच्चाई व्यक्त की है, उसके अनुसार 14 से 18 आयु वर्ग के बच्चे अपनी क्षेत्रीय भाषा में दूसरी कक्षा के स्तर तक का पाठ नहीं पढ़ पाते। इस उम्र के तीसरी-चौथी क्लास के गणित के सामान्य से प्रश्नों को हल न कर सकें तो यह कोई अच्छी स्थिति नहीं कही जा सकती। ग्रामीण युवाओं की पसंद विज्ञान एवं तकनीकी विषयों की बजाय आर्ट्स विषय ही होना, शिक्षा के प्रति उपेक्षा एवं उदासीनता को ही दर्शा रहा है। समस्या गणित या भाषा नहीं है, ग्रामीण क्षेत्रों की पढ़ाई में यह पिछड़ापन अपने देश के लिए कोई नई बात नहीं। यह चुनौती बड़ी इसलिए है कि नवीन शिक्षा नीति घोषित होने के बावजूद स्कूली पढ़ाई की नियमित प्रक्रिया में इसका इलाज नहीं तलाशा गया है। जाहिर है, विशेष प्रयास करने पड़ेंगे, ग्रामीण एवं पिछडे़ क्षेत्रों में शिक्षा को प्राथमिकता देनी होगी अन्यथा दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकॉनमी बनने की राह पर बढ़ रहे देश के लिये यह चुनौती एक अंधेरा ही है।

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चिंता की बात यह भी है कि नई शिक्षा नीति में खास तौर से स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में व्यापक सुधार के प्रावधान की बातें बहुत हो रही है, लुभावनी योजनाएं बन रही हैं, लेकिन उनके परिणाम जमीन पर उतरते हुए नजर नहीं आ रहे हैं। यह हमारी नीतियों की पौल खोल रहा है या नीति-निर्माता की सोच में धुंधलापन है? जिंदगी का गुणा-भाग सिखाने वाली शिक्षा में जब बच्चों को गणित की सामान्य जोड़-बाकी भी नहीं आ पा रही हो तो इसे क्या कहेंगे? यही ना कि स्कूली शिक्षा के प्रसार की बातें भले ही जोर-शोर से की जा रहीं हों लेकिन इनमें सुविधाएं अपर्याप्त हैं या नई शिक्षा नीति को बनाने में कोई कमी है। यह भी हो सकता है कि साधनों के अभाव एवं दक्ष-प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी के कारण हम नई शिक्षा नीति को प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर पा रहे हैं। बेहतर शिक्षा देने का हमारा लक्ष्य कहीं-ना-कहीं भटका हुआ है।
इस सर्वे रिपोर्ट में गांवों की सरकारी व निजी शिक्षण संस्थाएं दोनों के बच्चों को शामिल किया गया है। यही नहीं इस सर्वे में जिन विद्यार्थियों को शामिल किया गया, उनमें 90 फीसदी से ज्यादा ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया है। स्मार्ट फोन का इस्तेमाल मनोरंजन के लिए ज्यादा और पढ़ाई के लिए कम होने लगा है। साफ है शिक्षा के प्रसार के लिए मोबाइल व कम्प्यूटर जैसे उपकरणों का इस्तेमाल सकारात्मक रूप से नहीं हो पा रहा है। अधिकांश बालक-बालिकाएं कम्प्यूटर या मोबाइल के माध्यम से पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी नजर आते हैं। हालात बदलने के लिए न केवल प्रशिक्षित शिक्षकों की स्कूलों में भर्ती जरूरी है, बल्कि दूर-दराज के इलाकों में भी शिक्षा की पहुंच को आसान किया जाना भी अपेक्षित है। देश-दुनिया ने कोरोना महामारी की जबर्दस्त चुनौती झेली है। खासकर ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों की पढ़ाई तो कोरोना काल में लगभग ठप ही हो गई थी। ऐसे दौर में जब पहले ही बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए कठिन प्रतिस्पर्धा एवं चुनौतियों सामना करना पड़ रहा है, उनकी नींव को कमजोर रखना चिंताजनक है। जिम्मेदारी सरकारों की ज्यादा है, जिन्हें इस दिशा में अभी काफी काम करना है। शिक्षण संस्थाओं के प्रसार की दिशा में भले ही हम प्रगति कर रहे हों, लेकिन यह साफ है कि शिक्षा डिजिटल तकनीक माध्यम से देने में हम असफल रहे हैं। सर्वे में एक और खास बात निकलकर सामने आई है कि वोकेशनल ट्रेनिंग में अभी ग्रामीण युवा पीछे हैं। सर्वे में शामिल युवाओं में केवल 5.6 प्रतिशत ही वोकेशनल ट्रेनिंग ले रहे हैं। इसी रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि करीब एक तिहाई बच्चे 12वीं से आगे नहीं पढ़ते। लड़कों के मामले में ड्रॉप आउट की सबसे बड़ी वजह रुचि की कमी पाई गई तो लड़कियों के मामले में पारिवारिक मजबूरी।
आधुनिक शिक्षा के सामने आज अनेक चुनौतियां हैं। छात्र जहां अनेक कारणों से बीच में ही पढाई छोड़ देने को मजबूर है, वही कुछ छात्र शिक्षा की चुनौतियों को झेल नहीं पाने के कारण आत्महत्या तक कर रहे हैं। जबकि हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का निरंतर सामंजस्यपूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करने का सशक्त माध्यम है। हमने प्राचीन शिक्षा प्रणाली की इन विशेषताओं को भूला दिया है। आजादी के बाद से चली आ रही शिक्षा प्रणाली में शिक्षालय मिशन न होकर व्यवसाय बन गया था। इस बड़ी विसंगति को दूर करने की दृष्टि से वर्ततान शिक्षा नीति में व्यापक चिन्तन-मंथन किया गया है, लेकिन उसका असर सामने न आना हमें शिक्षा पर नये सिरे से सोचने को मजबूर कर रहा है। भले ही यह आशा की जा रही है कि नयी शिक्षा नीति में शिक्षा की इन कमियों एवं अपूर्णताओं के दूर होने संभावनाएं हैं। लेकिन इसके लिये आधुनिक शिक्षा एवं शिक्षकों को समग्र दृष्टि से परिपक्व बनाना होगा, तभी शिक्षा की कमियां दूर हो सकेगी और नयी शिक्षा नीति के प्रभावी परिणाम आ सकेंगे। अन्य कलाओं की भांति शिक्षण भी एक महत्वपूर्ण कला है, शिक्षक उस कलाकार के समान होता है, जो अनगढ़ पत्थर को तराशकर पूज्य प्रतिमा एवं समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करता है। यही शिक्षक छात्रों में जटिल शिक्षा की चुनौतियों को स्वीकार करने के लिये तैयार कर सकते हैं।
वर्तमान में शिक्षण-कौशल एवं शिक्षण विधियों पर बहुत अनुसंधान हो रहा है। एक अध्यापक स्रष्टा की भांति समाज की भावी पीढ़ी का निर्माण करके समाज द्वारा उत्पन्न शून्य को भरने का प्रयत्न कर सकता है, यदि उसके दायित्व में कमी रहती है तो उसे क्षम्य नहीं माना जा सकता। सच्ची शि़क्षा-संस्कृति इंजीनियरों और टेकनीशियनों पर नहीं, अपितु शिक्षकों पर आधारित होती है। अब शिक्षक एवं शिक्षा-नीति एक क्रांतिकारी बदलाव की ओर अग्रसर हो। शिक्षक एवं शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य अब प्राप्त हो। अनेकानेक विशेषताओं के बावजूद अब तक शिक्षक का पद धुंधला रहा था। जैसाकि महात्मा गांधी ने कहा था-एक स्कूल खुलेगी तो सौ जेलें बंद होंगी। पर उल्टा होता रहा है। स्कूलों की संख्या बढ़ने के साथ जेलों के स्थान छोटे पड़ते गये हैं। जेलों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ रही है। स्पष्ट है- हिंसा और अपराधों की वृद्धि में मैकाले की शिक्षा प्रणाली एवं शिक्षक भी एक सीमा तक जिम्मेदार है। शिक्षा के प्रति छात्रों में जुनून एवं जोश पैदा न होना शिक्षा नीति की बड़ी खामी है। शिक्षा समग्रता से छात्रों का जीवन-निर्माण नहीं कर पारही है, यही कारण है कि अशिक्षित और मूर्ख की अपेक्षा शिक्षित और बुद्धिमान अधिक अपराध करते रहे हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में जो तनाव, टकराव और बिखराव की घटनाएं घटित होती रही हैं, उसके मूल में संकीर्णता और ईर्ष्या की मनोवृत्ति भी एक बड़ा कारण है। व्यक्तित्व का टकराव भी इसी कारण बढ़ा है। क्या कारण है कि नयी पीढ़ी के निर्माण में ऐसी त्रुटियां के बावजूद सरकारें कुंभकरणी निद्रा में रही, शिक्षक क्यों नहीं एक सर्वांगीण गुणों वाली पीढ़ी का निर्माण कर पाएं? इसका कारण दूषित राजनीतिक सोच रही है। मानव ने ज्ञान-विज्ञान में आश्चर्यजनक प्रगति की है। परन्तु अपने और औरों के जीवन के प्रति सम्मान में कमी आई है। विचार-क्रान्तियां बहुत हुईं, किन्तु आचार-स्तर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन कम हुए। शान्ति, अहिंसा और मानवाधिकारों की बातें संसार में बहुत हो रही हैं, किन्तु सम्यक्-आचरण का अभाव अखरता है। अब नयी शिक्षा नीति के माध्यम से सम्यक् चरित्र, सम्यक् सोच एवं सम्यक् आचरण का निर्माण हो, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के प्रति आकर्षण पैदा हो, विश्व गुरु एवं दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने वाले भारत की विकास यात्रा पर एक धुंधलका बना रहेगा।
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(ललित गर्ग)
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