कस लो लुभावनी घोषणाओं और वादों के तीर-कमान
-जनता के देवरे धोकने और वर्करों में जोश फूंकने में कमी नहीं छोड़ना
-जनता भी पागल है और कार्यकर्ता भी, मजे तो नेताओं को ही लूटने हैं
✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
👉लोकसभा चुनाव का बहुप्रतीक्षित बिगुल बज गया है। देश की स्थिति को देखते हुए चुनाव आयोग ने विभिन्न चरणों में मतदान कराने का निर्णय किया है। मतगणना 4 जून को होगी। जिन क्षेत्रों में सबसे पहले मतदान हो जाएगा, उन क्षेत्रों के उम्मीदवारों को परिणाम निकलने का लंबा इंतजार करना होगा। कोई बात नहीं। जब वोट पडे़ंगे, तो नतीजे भी आएंगे ही। जितना लंबा इंतजार, उतनी ज्यादा दिल की बढ़ती दिल की धड़कनें। चुनाव की तारीखों का ऐलान होने के साथ ही देशभर में आदर्श चुनाव संहिता लागू हो गई है। अब राजनेताओं को विकास कार्यों का शिलान्यास और लोकार्पण करने के लिए भी कम से कम ढाई महीने सब्र करना होगा। चुनाव का मैदान तैयार है और लड़ाकू भी तैयार हो रहे हैं। कोई किस पाले में जा रहा है, तो कोई किस पाले में। फिलहाल तो पाला बदलने यानी दलबदल करने का दौर चल रहा है। कोई भाजपा से नाराज होकर कांग्रेस में जा रहा है, तो कोई कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम रहा है। दोनों बड़े दलों भाजपा और कांग्रेस में एक-दूसरे के नेताओं-कार्यकर्ताओं को तोड़-तोड़कर अपने-अपने पाले में मिलाने की होड़ चल रही है। यह वक्त का तकाजा या नजाकत ही कहा जाएगा कि वर्तमान में ज्यादातर नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं। भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जाने वालों की संख्या कम है।
ऐसे लोगों की नई पार्टी में कितने दिन निष्ठा बनी रहेगी, यह वर्ष 2028 में होने वाले विधानसभा चुनाव और वर्ष 2029 के लोकसभा चुनाव नजदीक आने पर पता चलेगा। ऐसे नेता पहले ही भांप लेते हैं कि अब उन्हें ऐसे किस पाले में जाना है, जिससे उनकी राजनीति चलती रहे। चलिए, इस दलगत राजनीति में आना-जाना तो चलता रहेगा। लेकिन अब जबकि चुनावी बिगुल बज ही गया है, तो प्यारों कस लो लुभावनी घोषणाओं और वादों के तीर-कमान। जनता के देवरे धोकने और वर्करों में जोश फूंकने में कमी नहीं छोड़ना। जनता भी पागल है और कार्यकर्ता भी, मजे तो नेताओं को ही लूटने हैं। आप इसी के लिए बनो हो। भगवान ने आपको इसीलिए मानव जीवन दिया है। लेकिन जरा, चुनाव लड़ने और जीतने वालों, आप सभी अपने दिल पर हाथ रखकर सोचो, जो वादे और लुभावनी घोषणाएं आप लोग करते हो, क्या वह पूरी कर पाते हो। चुनाव जीतने के बाद विधायक या सांसद बनते ही पहले तो आपके हाव-भाव बदल जाते हैं, चाल-ढाल बदल जाती है। बोलने का तरीका बदल जाता है। चुनाव के दौरान जिन मतदाताओं और कार्यकर्ताओं से आप-आप और जी-जी कहकर बात करते हो, चुनाव निपटते और परिणाम निकलते ही आपके यह सारे तौर-तरीके बदल जाते हैं। और फिर जब आप मंत्री या किसी आयोग व बोर्ड का अध्यक्ष बन जाते हैं, तो फिर तो कहना ही क्या। आप वह दिन भूल जाते हैं, जब एक-एक वोट पाने के लिए जनता के धोक देते हैं, मिन्नतें करते हैं, झुक-झुक कर आशीर्वाद लेते हैं, कार्यकर्ताओं के लिए चाय-पानी से लेकर खाने-पीने तक का बंदोबस्त करते हैं, उनके घर-घर जाते हैं, बच्चों व परिवारजन से बड़ी आत्मीयता से मिलते हैं। चुनाव निकलने के बाद यह आत्मीयता कहां चली जाती है। चुनाव के दौरान कार्यकर्ताओं की बार-बार बैठकें कर उनमें जोश फूंकते हैं। जब पद पर आसीन हो जाते हैं, तो रास्ते में मिलने वाले कार्यकर्ता से कार रोककर और नीचे उतर कर ना तो बात करना पसंद करते हैं और ना ही कभी उन्हें बिना काम ही बुलाकर उनका और परिवार का हाल-चाल जानने का प्रयास करते हैं। जनता भी चुनाव के वक्त याद आती है, तो कार्यकर्ता भी। अब दोनों ही बेचारे किधर जाएं, किससे अपने मन की व्यथा-कथा कहें। तो मित्रों, यही चुनाव है। जनता लुभावनी घोषणाओं और वादों में आकर लोकतंत्र के यज्ञ में आहुति दे देती है और कार्यकर्ता पार्टी की जीत के जुनून पर सवार होकर दिन-रात दौड़ते हैं। राजनीति या यूं कहें, सत्ता की मलाई तो नेताजी ही खाते हैं, क्योंकि यह उनके ही लिए ही बनी होती है और उनके ही भाग्य में होती है।