*रिटायरमेंट के बाद अफसरों व जजों को नहीं मिले पांच साल तक कोई पद*

*बनना चाहिए ऐसा भी कानून*
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*■ओम माथुर■*
एक कानून ये भी कि बनना चाहिए कि जजों,प्रशासनिक अधिकारियों और सरकारी सेवाओं में उच्च पदों पर रहने वालों को उनके रिटायरमेंट के बाद किसी भी पद पर मनोनीत या नियुक्त नहीं किया जाएगा या फिर रिटायरमेंट के कम से कम पांच साल बाद ही उन्हें पद दिया जाए।
दरअसल,ऊंचे पदों पर रहने वाले अधिकारियों की जीवनशैली ऐसी हो जाती है कि उन्हें यह लगने लगता है कि रिटायरमेंट के बाद नौकरी के दौरान उनके रूतबे और मिलने वाली सुविधाओं के अभाव में उनका क्या होगा? अपने आसपास नौकरों की फौज,जी-हुजूरी करते अधीनस्थ कर्मचारी और पद पर रहते प्रभाव के कारण समाज में मिलने वालछ विशेषाधिकारों की उनमें इतनी आदत पड़ जाती है कि वह उसी में अपना बाकी जीवन गुजारना चाहते हैं। ऐसे में रिटायरमेंट करीब आने के साथ ही वे उस राजनीतिक पार्टी के साथ अपनी पींंगे बढाने लग जाते हैं,जो उस वक्त सत्ता में होती है और नौकरी खत्म होते ही किसी आयोग,किसी बोर्ड में अध्यक्ष बन जाते हैं या फिर विधानसभा-लोकसभा चुनाव का टिकट लेकर मैदान में उतर जाते हैं। बहुत किस्मत वाले सीधे राज्यसभा के लिए भी मनोनीत हो जाते हैं।

ओम माथुर
ऐसे में कार्यकाल के अंतिम दौर में उनसे निष्पक्षता की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? अफसरशाही तो इस मर्यादा और लक्ष्मण रेखा को बहुत पहले ही तोड़ चुकी है, लेकिन अब जिस तरह न्यायाधीश इस तरफ तेजी से अग्रसर हो रहे हैं, उससे न्यायपालिका और न्यायिक फैसलों पर भी लोग अंगुली उंगली उठाने लगे हैं। जाहिर है लाभ के लालच में अपने कार्य क्षेत्र में उनके फैसले और आदेश सत्तारूढ़ पार्टी को लाभ पहुंचाने वाले होते ही होंगे? 30 -40 साल तक आईएएस- आईपीएस या ऐसी ही रूतबे वाली राज्य सेवाओं में रहकर रिटायरमेंट के बाद राजनीतिक पथ हासिल करके ये लोग राजनीतिक क्षेत्र में सालों से संघर्ष और मेहनत करने वाले लोगों के हक भी मारते हैं। अब तो सरकारी सेवाओं से इस्तीफा देकर सीधे चुनाव मैदान में उतरने की परम्परा हर राज्य और हर राजनीतिक दल में हर चुनाव में तेजी से बन रही है।
सवाल ये नहीं है कि भाजपा सरकार के रहते या कांग्रेस सरकार के रहते कितने अफसरों,जजों को रिटायरमेंट के बाद पुनर्वास हुआ, सवाल उस मानसिकता का है जिसमें हर राजनीतिक दल, न्यायिक,प्रशासनिक और पुलिस तंत्र को अपने कब्जे में रखना चाहता हैं और थोड़े से लालच में इनके अधिकारी इसका शिकार भी हो जाते हैं।
तुमने किया है,इसलिए हम भी करेंगे। सत्ता में आने वाले राजनीतिक दलों को इस परंपरा से भी बचना चाहिए। कोई गलत परंपरा अगर कांग्रेस ने डाल दी है तो भाजपा भी तो उसे आगे ही बढा रही है। उसे आगे बढ़ाएं? अगर उसे भी ऐसा ही करना है तो उसमें और कांग्रेस में अंतर क्या है? यह दोनों राष्ट्रीय दल ही क्यों,अब तो क्षेत्रीय दल भी इसी दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं।
न्यायपालिका की निष्पक्षता पर अब इसीलिए सवाल उठने लगे हैं,क्योंकि कई बार जज फैसला देते समय पक्षपाती नजर आते हैं और बादौ में जज रहे लोगों को मिलने वाली ऐसी नियुक्तियां लोगों के अविश्वास को और बढ़ाती है। कोलकाता हाईकोर्ट के जज अभिजीत गंगोपाध्याय ने जिस तरह इस्तीफा देकर भाजपा ज्वाइन की और अब उनके लोकसभा चुनाव लड़ने की उम्मीद है,इससे क्या न्यायपालिका के प्रति गलत संदेश नहीं जाता?
*पिछले 5 सालों में किस जज को क्या मिला*
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-जस्टिस अरुण मिश्रा। जज सुप्रीम कोर्ट। रिटायरमेंट के 9 माह बाद एनएचसी के अध्यक्ष।
-जस्टिस आदर्श कुमार गोयल। सुप्रीम कोर्ट जज। रिटायरमेंट के 24 घंटे बाद एनजीटी के अध्यक्ष।
-जस्टिस रंजन गोगोई। चीफ जस्टिस सुप्रीम कोर्ट। रिटायरमेंट के 4 महीने बाद वर्ष 2020 में राज्यसभा के लिए नामित।
-जस्टिस एस. अब्दुल नजीर जज सुप्रीम कोर्ट। रिटायरमेंट के 1 महीने बाद आंध्र प्रदेश के राज्यपाल।
-जस्टिस अशोक भूषण जज सुप्रीम कोर्ट। नवंबर में रिटायरमेंट के 3 महीने बाद एनसीएलटी के अध्यक्ष।
*पहले भी होता रहा है*
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-जस्टिस एम रामा जोइस। 1992 में जज पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट। रिटायरमेंट के बाद 2002 झारखंड के राज्यपाल।
-जस्टिस विजय बहुगुणा। बाम्बे हाईकोर्ट। 1995 में रिटायरमेंट के बाद कांग्रेस से लोकसभा उम्मीदवार
-चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा। रिटायरमेंट के बाद मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष व 1998 में राज्यसभा सदस्य।
*9351415379*

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