मन की अयोध्या में सद्गुरु ही श्रीराम हैं !

शिव शर्मा

भीलनी शबरी को दीक्षा देते समय मातंग ऋषि ने कहा था – मन की अयोध्या में सद्गुरु ही श्रीराम हैं। फिर समझाया कि अयोध्या यानि जहां कोई युद्ध नहीं, द्वंद नहीं, विकार भाव नहीं। ऐसे ही राम यानि ज्ञान का प्रकाश। सद्गुरु का भी अर्थ ज्ञान ही है। तो जब गुरु की कृपा से मन के द्वेष, विकार, संकल्प, विकल्प मिट जाते हैं, तब मन में ही ज्ञानोदय होता है। इसी ज्ञानोदय में आत्मा की अनुभूति होती है। राम के दर्शन होते हैं।

बाद में मातंग ऋषि तो हिमालय की तरफ चले गए। श्रीराम उस आश्रम में पधारे। तब शबरी ने देखा कि उसके गुरु मातंग ऋषि का सूक्ष्म शरीर भी वहां श्रीराम के पास खड़ा है। फिर उनका शरीर अंडाकार प्रकाश में परिवर्तित हो गया और उसी प्रकाश में श्रीराम का ज्योतिर्मय रूप दिख रहा है। तब वह अपने गुरु के उस कथन का अर्थ समझी जो उन्होंने दीक्षा के समय कहा था – मन की अयोध्या में सद्गुरु ही श्री राम हैं।
पुराण काल में कर्दम ऋषि का बड़ा नाम था। उनकी पत्नी देवहूति अनन्य तपस्विनी थी। कपिल मुनि इन्हीं के पुत्र थे। पति-पत्नी 40 वर्ष तक समाधि और तपस्या में रहे। फिर ओजस्वी पुत्र कपिल का जन्म हुआ। कपिल मुनि को युवावस्था में ही आध्यात्मिक जागरण हो गया। उनके पिता ऋषि कर्दम तो सन्यासी होकर वन में चले गए। तब देवहूति ने अपने ही पुत्र को गुरु रूप में धारण किया। देवहूति का पहला प्रश्न था – भगवान! संसार के सारे सुख मिल जाने के उपरांत भी मनुष्य का मन अशांत क्यों रहता है? देवहूति के प्रश्न के जवाब में कपिल मुनि बोले – देवी! मनुष्य का मन तो भोगवादी है इसलिए चंचल एवं विकल्प रहता है। गुरु भक्ति से यही मन योग भूमि की निर्लिप्त अवस्था में पहुंच जाता है। वहां यह मन शांत रहता है। वे पुन: बोले कि योगारूढ़ मन ही बैकुंठ के समान होता है। जहां परम ज्योति व्याप्त रहती है।
ऐसे ही 19 – 20वीं सदी के दौरान बंगाल की निर्मला, आनंदमयी मां के नाम से विख्यात हुई। अल्पायु में ही निर्मला का विवाह मोहन चक्रवर्ती नाम के युवक के साथ संपन्न हुआ। 19 वर्ष की आयु में निर्मला ससुराल गई। दांपत्य संबंध को नकारती रही। पति को परावाणी सुनाती रही। एक दिन उसने स्वयं में ही मां काली के दर्शन किए। तब अपने पति से कहा – मेरी पूजा करो। पति ने वैसा ही किया। उसे भी काली माता के दर्शन हुए। पति बोला – मां! बस निर्मला अब मां आनंदमयी हो गई; गुरु मां हो गई। मोहन चक्रवर्ती के पत्नी के प्रति मनोविकार मिट गए। दूसरे दिन सुबह ही मां ने पति को दीक्षा दी। नाम भोलेनाथ हुआ। उन्हें गृह त्याग कर उत्तरकाशी के एक आश्रम में भेज दिया। इस भोलेनाथ (पति) ने मां आनंदमयी (पत्नी) की शिष्य के तौर पर बहुत सेवा की थी। आनंदमयी मां बचपन में ही कहती थी कि मैं देह नहीं आत्मा हूं।
इस प्रकार गुरु की कृपा से मनुष्य का मन ही पहले गुरुमय होता है। गुरुमय मन ही अयोध्या (पवित्र) हो जाता है। ऐसे मन में ही ज्ञानोदय होता है। इसी मन में मुक्ति की अनुभूति होती है। इसीलिए शास्त्रों में गुरु ओम् तत्सत् कहा गया है।

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