श्रीलंका में मानवाधिकार उल्लंघन

केशव राम सिंघल
केशव राम सिंघल

श्रीलंका में जातीय दंगों के समाचार अकसर सुनने को मिल जाते हैं. देश में सिंहली और ऐलम ‍तमिल के बीच विवाद के फलस्वरूप अभी हाल ही में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में प्रस्ताव पारित हुया. इसके अलावा श्रीलंका में मुस्लिम विरोधी लहर भी यकीनन चिन्ता की बात है. पिछलेदिनों श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा एक मुस्लिम व्यक्ति की दुकान पर हमला बोल दिया गया. हालांकि श्रीलंका के राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे ने कहा है कि उनकी सरकार देश में नस्लवाद या धार्मिक उग्रवाद की अनुमति नहीं देगी और साथ ही उन्होंने बौद्ध समुदाय के लोगों को सलाह दी कि उन्हें दूसरों के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिये. उन्होंने एक धार्मिक सभा में कहा कि श्रीलंका एक लोकतांत्रिक देश है और गैर-बौद्धों के अधिकार और स्वंतत्रता बौद्धों के समान ही है. यह बौद्धों की जिम्मेदारी है और यह उनके लिए अनुकरणीय है कि वे दूसरों केअधिकारों की रक्षा करें. उनका यह बयान मुस्लिम समुदाय पर हमले के समाचार के बाद आया.

बौद्ध धर्म के एक विशेषज्ञ राफैल लिओगिर के अनुसार बौद्ध समुदाय के लोगों का मानना है कि श्रीलंका की पूरी पहचान बौद्ध है. बौद्ध सिर्फ़ एक धर्म नहीं है, यह एक गहरी सांस्कृतिक पहचान है, एक राष्ट्रीय पहचान है.कट्टर बौद्ध भिक्षु मुसलमानों को आक्रमणकारी मानते हैं और उनका मानना है कि मुसलमानों को रोका जाना चाहिये. यह आम धारणा है कि बौद्ध धर्म, शांति का धर्म है। परन्तु सच यह है कि बौद्ध अनुयायियों ने अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिये धर्म के नाम पर हिंसा की है।

श्रीलंका में सिंहली-मुस्लिम विवाद भी अब चिन्ता की बात है, क्योंकि श्रीलंका में मुस्लिम अल्पसंख्यक जरूर हैं, पर उनकी जनसंख्या क़रीब 9 प्रतिशत है और किसी भी लोकतांत्रिक देश में अल्पसंख्यकों के साथ दूसरे दर्जे का व्यवहार नहीं होना चाहिये.

पटना में आयोजित नवें काँग्रेस के दौरान दिनांक 2 अप्रैल 2013 को सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपांकर भत्ताचार्य ने तमिलों के नरसंहार युद्ध अभियान के लिए श्रीलंका की निन्दा की है. ‍तमिल भारत के फ़िल्म सितारों, जिनमें सुपरस्टार रजनीकांत भी शामिल हैं, ने एक दिन का सांकेतिक उपवास रखकर यह संदेश दिया है कि पड़ोसी श्रीलंका में तमिलों के साथ दुराचार और युद्धकालीन अपराधों के लिए अंतरराष्ट्रीय जाँच की जानी चाहिये. तमिलनाडु में यह भावनात्मक मुद्दा बन गया है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई एक जाँच से ऐसे संकेत मिलें हैंकि श्रीलंका की सिंहली बहुल सरकार ने युद्ध के अन्तिम महीनों में क़रीब 40,000 ‍तमिल लोगों को मौत के घाट उतार दिया. 2009 में श्रीलंका सरकार ने तमिल विद्रोहियों के आन्दोलन को कुचल दिया था। उसके बाद से अब तक श्रीलंका सरकार ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि तमिलों के साथ कोई अत्याचार हुआ था। आज भी श्रीलंका के उत्तर और पूर्व में रहने वाले तमिलों को श्रीलंका सेना के नियंत्रण में जीवन जीना पड़ रहा है। यह बहुत ही चिन्ता की बात है.
लेकिन दूसरी ओर मीडिया से प्राप्त समाचार से ज्ञात हुया कि श्रीलंका के मुख्य बंदरगाह पर कार्यरत कामगार यूनियनों ने भारत के तमिलनाडु राज्यसे होने वाले आयात-निर्यात, तकरीबन दो बिलियन डॉलर, को रोकने की धमकी दी है. उनका यह कदम तमिलनाडु की मुख्य-मन्त्री जयललिता और अन्य राजनैतिक नेताओं के लिए चेतावनी है, जो श्रीलंका सरकार के मानवाधिकार मामलों के लिए भारत सरकार को कठोर कदम उठाने के लिए प्रेरित करते हैं.यह अनुमान किया जाता है कि श्रीलंका-भारत के बीच कुल आयात-निर्यात लगभग पाँच बिलियन डॉलर का है, जिसका 40 प्रतिशत आयात-निर्यात तमिलनाडु से होता है. यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि कामगार यूनियन के पदाधिकारी सिंहली हैं, जो श्रीलंका सरकार की नीतियों का समर्थन ही करते हैं.
बुधवार दिनांक 3 अप्रैल 2013 को उत्तरी श्रीलंका में ‍तमिल समाचार-पत्र ‘उथयन’ के कार्यालय में छ: नकाबपोश आदमी घुस आए, जिन्होंने कर्मचारियों के साथ मारपीट की और कार्यालय में तोड़फोड़ की. दो कर्मचारी तो बुरी तरह घायल हो गए और तोड़फोड़ से सम्पति को भी नुकसान हुया है. श्रीलंका में ‍तमिल-भाषी समाचार-पत्र या उनके वितरकों पर हमला होना कोई नई बात नहीं है, ऐसा कई बार हो चुका है. तमिल समाचार-पत्र ‘उथयन’ के मालिक सर्वनापवन श्रीलंका संसद में विपक्षी दल ‘‍तमिल नेशनल अलाईंस’ के सांसद भी हैं. श्रीलंका पत्रकारों के लिए अब सुरक्षित स्थान नहीं रहा, ऐसा बहुत से लोगों का मानना है. पुलिस ने हालाँकि रिपोर्ट दर्ज कर ली है, पर अभी तक गिरफ्तारी की कोई ख़बर नहीं है. सबसे दुःखद बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा पारित प्रस्ताव के बावजूद श्रीलंका सरकार पर कोई असर नहीं पड़ रहा है. हाथी के दाँत दिखाने के अलग और खाने के अलग और यही रवैया है श्रीलंका सरकार का, तभी तो वे अपने ही देश के तमिलों से अलग तरह का व्यवहार कर रहे हैं. उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है. युद्ध समाप्त होने के बाद भी श्रीलंकाई सैनिकों की ज्यादतिया जारी हैं. बहुत से श्रीलंकाई तमिलों को अपना देश छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. आज भी लगभग 80,000 श्रीलंकाई ‍तमिल शरणार्थी बेहतर जिन्दगी की आस में तमिलनाडु में स्थापित 110 से अधिक शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं और बेघर होने का दर्द लगातार सह रहे हैं. श्रीलंका के मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले में भारत सरकार की दुविधा सबसे अधिक है। श्रीलंका में जिस तमिल आबादी पर श्रीलंका सरकार का आतंक है, वह ‍तमिल आबादी मूल रूपसे भारतीय मूल के ‍तमिल पूर्वजों के वंशज ही हैं. श्रीलंकाई तमिलों के पूर्वज तमिलनाडु से ही श्रीलंका गये थे। भारत की राजनीति पर श्रीलंकाई तमिलों के साथ होनेवाले अत्याचार का सीधा असर पड़ता है। जब तक श्रीलंका में वहाँ की सरकार सभी धर्मों के नागरिकों को सम्मान और गरिमा से जीवन बिताने का दायित्व सही अर्थों में नहीं निभायेगी तब तक श्रीलंका में विकास की उम्मीद नहीं की जा सकती। तब तक हम यह आशा नहीं कर सकते कि गरीबी में जी रहे श्रीलंका के अल्पसंख्यक नागरिकों को कोई राहत मिलेगी।
– केशव राम सिंघल
(लेखक राजनीति विज्ञान के स्नातकोत्तर हैं तथा 1975 में श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं.)”

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