सुप्रीम कोर्ट में सभी भाषाओं की अलग-अलग बेंच हो-1

-विकास कुमार गुप्ता – विश्व के किसी भी देश के नागरिकों को अपने मातृभाषा के बारे उच्च शिक्षा, न्याय और अन्य मुलभूत सुविधायें पाने का अधिकार है। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। भारत में तीन प्रतिशत अंग्रेजी 97 प्रतिशत जनता पर शासन करती है। आईयें इतिहास में खंगालते है कि आखिर यहां ऐसा क्यो है।
Supreme-Court–भारतीय समाज में भ्रष्टाचार के कीड़े चहुंओर बज़बज़ा रहे है। अब तो नालियों को भी शर्म आने लगी हैं। नालियों से गंदे तो साले कीड़े हो चुके है। नालियों की आत्मायें रो रही है। लेकिन भ्रष्टाचारी बेशर्म तरीके से घूम रहे है। एक समय था जब चमचागीरी, दलाली, हरामखोरी बेशर्मी की पराकाष्ठायें समझी बूझी जाती थी। लेकिन वर्तमान समय में किसी अफसर, नेता का चमचा कहलाना गर्व का विषय बन चुका है। हिन्दुस्तान में एक लोकोक्ती है ”चुल्लू भर पानी में डूब मरों“ लेकिन अब यह उक्ती भी बाजारवाद की भेंट चढ़ गया है। अब तो शर्म है कि आती ही नहीं। पहले बेशर्मों को समाज तिरस्कृत करता था। लेकिन अब शर्मीले लोगों को समाज में अलग-थलग बिठाया जाने लगा है। नियम/कानून तोड़ना अधिकार और रसूखदारी का लाइसेंस माना जाने लगा है। ऐसा नहीं है कि प्राचीन भारत में चोर डाकू लूटेरे नहीं थे। उस समय भी लूटेरे, चोर होते थे। लेकिन मार्यादित। रामायण, महाभारत से लेकर भगवान बुद्ध महावीर तक के उपदेशों में चोरी आदि न करने के उपदेश तो मिलते ही है। लेकीन उनकी भी तासीर होती थी, एक सीमा होती थी। एक बार प्रकाश में आ जाने के बाद समाज उनका बहिष्कार कर देता था। लेकिन वर्तमान में समाज में सभी मार्यादायें टूट चुकी है। बलात्कार, अत्याचार, लूट, दादागीरी, घूसखोरी, चमचागीरी अपने चरम पर है। और इसके जिम्मेदार लूटेरे ब्रिटिश इंडिया के अंग्रेज थे। शराब का ठेका, वेश्याओं की दूकाने अंग्रेजों ने बकायदें लाइसेन्स देकर यहां खोली। जो 1947 तक भारत के आम जनता की इज्जत, आबरू, सोना, ज्ञान अध्यात्म की किताबें तक लूट के ले गये और जाते-जाते भाषिक गुलामी से लेकर अनेकों प्रकार की बाजारवादी गुलामी में फंसा गये। विदेशियों कंपनियों के कुचक्र से लेकर बहुत से मामलें। लूटेरे अंग्रेजों का काम ही था लूटना, और इस लूट के लिये 1615 में थॉमस रो ने जहांगीर से संधि भी की। फिर लूटने का पहला दूकान उसनेे सूरत में खोला ही। फिर देश के सभी रियासतों में फूट-टूट-लूट का तिलिस्म भी अंग्रेजों ने चलाया। कानून पर कानून बनायें गयें। यहां के सभी व्यवस्थाओं को तोड़ा गया। गुरूकुल को तोड़ा गया, यहां की भाषा व्यवस्था को फोड़ा गया। जहांगीर को क्या पता था हम मुंगलों को भी दिन में तारे दिखाने वाले योद्धा अभी धरती पर है जिनके खून में दोगलापन, कमीनापन मिश्रित है और जो जमीने हड़पते है तो कानून बनाकर, वे धन लूटते है तो तलवारों के बल पर नहीं वरन टैक्स के कानूनों के बल पर, ब्यापार और कूटनीति के बल पर। जिनकी नस्ल ही लूट और कूटनीति की है। जो कुछ सौ सैनिक भी लेकर किसी बड़े से बड़े देश को गुलाम बनाने निकल पड़ते है और बना भी लेते है। जैसे मदारी खेल दिखाकर सबकों चकित कर देता है वैसे ही अंग्रेज यहा मदारी का खेल खेलकर राज्यों को हड़पने लगे। फर्जी संधिया करके लूटने लगे। 1857 के सैनिक विद्रोह के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी के लूट की गाथा समाप्त होती है तब ब्रिटिश संसद के लूट की दुकान इंडिया में शुरू होती है। फिर ब्रिटिश इंडिया अपने संसद में भारत में लूटने के नये-नये हथकंडों पर विचार-विमर्श करती है। जैसे यहां फ्री टेªड लागू करने की, सभी ब्रिटिश गुलाम देशों में लागू कानून को उठाकर भारत में लागू करने की आदि आदि। फिर क्या था ब्रिटिश इंडिया के लूट की दुकानें भारत में खुलने लगी। न्यायालय, थाने, कार्यालय खुलने लगे। उनमें कार्य भी अंग्रेजी में होने लगे। जजमेन्ट भी अंग्रेजी में। और भारतीय जनता अंग्रेज साहबों के जुल्मों सितम की पराकाष्ठा को झेलती रही। कोड़े खाती रही, जूते खाती रही, बहन बेटियों की आबरू लुटवाटी रही। अंग्रेजों ने वेश्यालयों को लाइसेन्स देकर हमारे बहु-बेटियों और बहनों को कोठे पर बिठाने लगे। यहां क्लब खुलने लगे और अंग्रेज वहां शराब, जुआ और ऐय्यासी करने लगे। अंग्र्रेज हजारों लोगों को कतारों में खड़े कर-करके गोलिया मारते रहे। और अपने कानून और अपने राज्य को चलाते रहे। अंग्रेजी से बेबुझ जनता असहाय मूकदर्शक बनी रही। और यहां अंग्रेजों के कानून लागू होते ही गये और अंग्रेजी का महत्व शनै-शनै विस्तारित होता ही गया। और अंग्रेजी भाषा की जरूरत भी। फिर क्या था ऊपर के राजा, जमीन्दार लोग भी अंग्रेजी को तरजीह देना शुरू करने लगे। कुछ लोग ब्रिटेन भी जाने लगे अध्ययन के लिये। पहले अंग्रेजी का प्रयोग हमारे रियासतों से होने वाले संधियों में होता था। फिर अंग्रेजी दफ्तरों से होते-होते हमारे स्कूल कालेजों तक पहुंच गया। हम तमाशबीन रहे। हम अपनी लूटी हुई आबरू का तमाशबीन रहे। फिर हम अंग्रेजों के अंग्रेजी को ईज्जत, मान-सम्मान की भाषा समझने लगे। लेकिन जब 1947 में देश आजाद हुआ तो स्वयंप्रभु राष्ट्र थे। हम भले ही ब्रिटेन के राष्ट्रमंडल के सदस्य थे लेकिन हम अपने कानून, भाषा इत्यादि स्वयं चुन/बना सकते थे। राबर्ट क्लाइव के व्यक्तिगत डायरी का एक वाकया महत्वपूर्ण है। जब पलासी की लड़ाई में मीर जाफर ने सिराजुदौला के साथ गद्दारी की और कुछ सौ सैनिकों के साथ क्लाइव बंगाल पर विजय पाने में जब सफल हुआ तो वह गद्दार जाफर के सैनिकों और अपने सैनिकों को लेकर बंगाल की राजधानी में स्थिति सिराजुदौला के महल के तरफ जा रहा था तो बंगाल की जनता तालियां पीट रही थी। क्लाइव लिखता है कि अगर वहां मौजूद हजारों जनता थोड़ा सा भी विरोध करती तो उस समय बंगाल गुलाम नहीं होता।

विकास कुमार गुप्ता
विकास कुमार गुप्ता

अंग्रेज तो 1947 में यहां से चले गये। लेकिन भारत और राष्ट्रमंडल देशों को लेकर आज भी ब्रिटिश संसद में कानून बनाते रहते है। 1971 में जब बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हुआ तो तुरन्त ही ब्रिटिश संसद में बांग्लादेश एक्ट उसकी आजादी के लिये और उससे बांग्लादेश और ब्रिटेन के बीच डबल टैक्सेशन अवायडेन्स ट्रीटी की संधी भी ब्रिटिश संसद में तत्काल पास की गयी। हां तो जब 1947 में देश आजाद हुआ तो उस समय कोई भी कानून भारतीयों द्वारा बनाये नहीं किये गये थे। क्योंकि गांधी जिन्दा थे। कुछ अपवाद के साथ – ”अंग्रेज चाहते थे कि जिनकी भी बहु-बेटियों-बहन की इज्जत आबरू अंग्रेजों द्वारा लूटी गयी है अथवा जिनके जिनके परिवार वाले अंग्रेजी कोड़े खाकर-खाकर मरे हो अथवा जो वास्तव में स्वदेशी और देशभक्त हो अथवा जो अंग्रेजों के कूटनीति को चाणक्य बुद्धि से समझते हो अथवा जो चमचागीरी करना न जानते हो अथवा जो विरोध करने वाले हो उन्हें आजाद भारत में लागू होने व्यवस्था और कानूनों की निर्माण होने वाले मंच से अलग-थलग रखा जायें तो जैसा वे चाहते थे वैस हो।“ कुछ अपवाद के साथ- ”टॉप के रसूख वाले लोगों के साथ कुछ नहीं हुआ था। हमारे देश में दो प्रकार की जनसंख्या थी एक राजा की एक प्रजा की। कुल मिलाकर हमारे राजाओं अथवा राजाओं की तरह रसूख और पावर रखने वाले लोगों ने संविधान और देश की नीति नियत की।” हमारी आजादी के लिये 1947 में इंडियन इंडेपेन्डेन्स एक्ट और 1949 में ब्रिटेन में इंडियन कान्स्युक्वेंसियल प्रोविजन एक्ट आजाद भारत में लागू होने वाले कानून को लेकर पारित किया गया। जब देश आजाद हुआ तो गांधी जी ने वक्तव्य दिया था की गौ हत्या का कानून वे अपने दम पर खतम करवायेंगे लेकिन उनकी तो हत्या हो गयी। सुभाष चन्द्र बोस तो गायब ही हो गये और देश के अन्य देशभक्त जो अंग्रेजों के तिलिस्म को समझने वाले थे मर चुके थे और जिन्दा थे -कुछ अपवाद के साथ- वे सत्ता में चूर थे। तो प्राप्त आजादी में अंग्रेजों की सभी व्यवस्थायें, सभी कानून हुबहू लागू कर दिये गये थोड़े से रद्दो बदल के बाद। क्योंकि कानून के संचालक भी तो वे राजा टाइप के लोगों को ही होना था। जैसे लोकतंत्र में 49 प्रतिशत जनता 51 प्रतिशत जनता पर शासन करती है वैसे ही 3 प्रतिशत अंग्रेजी वाले देश के 97 प्रतिशत जनता पर अपना शासन चला रहे है। मुझे तो शर्म आती है अपने देश की इस दोगली नीति पर जहां आम जनता के मुकदमों के हो रहे फैसले और जिरह को जनता बेबुझ मदारी के खेल की तरह देखती रहती है। संविधान का अनुच्छेद 351 कोरा धोखा है भारतीयों के साथ। हिन्दी के विकास की जगह हमारी सरकारें अंग्रेजी का विकास कर रही है। हमारे इंजीनियर, डॉक्टर, न्यायविद से लेकिन वैज्ञानिक कहां हिन्दी का प्रयोग करते है ये सब जानते है।
विश्व के अनेकों एक-एक देशों के बराबर हमारे एक-एक राज्य है। भाषा की गुलामी को एक ही तरीके से खतम किया जा सकता है। वो तरीका ये है कि सुप्रीम कोर्ट में आठवी अनुसूची के सभी भाषाओं की बेंच हो और उनके जिरह और फैसले उनके भाषा में हो। और हाइकोर्ट में उस राज्य की की भाषा को। अगर देश में एक राज्य में भाषिक आबादी एक से अधिक हो तो उस राज्य के हाईकोर्ट में भाषा के हिसाब से सभी भाषा की बेंच हो और उसी भाषा में जिरह, आदेश, निर्णय हो। देश को भाषाओं की वर्गों में बांटकर उस क्षेत्र में अन्य भाषाओं को सरकारी और गैरसरकारी कार्यस्तर पर प्रतिबंधित कर दिया जाये। सबकों मातृभाषा में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होना ही चाहिये। और सम्पूर्ण विश्व में ऐसा ही विधान है। एक भाषा का प्रयोग ही किसी को मौलिकता दे सकता है। इतिहास गवाह है जितने भी अनुसंधान और वैश्विक जगत में आश्चर्यजनक खोज हुये है वे सब खोजकर्ताओं ने अपनी मातृभाषा का प्रयोग किया है।
लेखक विकास कुमार गुप्ता pnews.in के सम्पादक है इनसे 9451135555 पर सम्पर्क किया जा सकता है।

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