क्या वाकई में परास्त हो गए आडवाणी !

adwani 6-संजीव पांडेय-  पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा देने के 24 घण्टों बाद ही इस्तीफा से मुंह मोड़ लेनेवाले आडवाणी के सामने आखिर ऐसी कौन सी परिस्थिति पैदा हो गई थी कि वे इस्तीफा देने की हद तक चले गये? अगर उन्हें इस्तीफा वापस ही लेना था, तो उन्होंने इस्तीफा दिया ही क्यों था? क्या इस्तीफा देने और वापस लेने के बीच उन्होंने ऐसा कुछ हासिल कर लिया है जो उनके इस्तीफे का कारण बना था? अभी तक जो बातें सामने आयी है उससे स्पष्ट हो गया कि गोवा कार्यकारणी में जो फैसला हुआ उससे पीछे हटने को संघ और भाजपा तैयार नहीं है। न हीं भविष्य में आडवाणी को कुछ दिया जाएगा, उसके भी कुछ संकेत मिले है। फिर आडवाणी ने यह इस्तीफा कांड क्यों रचा?

एलके आडवाणी ने गलत समय पर गलत चाल चली। वैसे कभी कभी वरिष्ठ खिलाड़ी को यह महसूस होता है कि उसकी हर चाल कामयाब होगी। जब मोहम्मद अली जिन्ना को आडवाणी ने सेक्यूलर बताया था तो पार्टी ने उनसे इस्तीफा लिया था। लेकिन बात इस्तीफे तक रह गई थी। बाद में फिर 2009 में परिस्थितियां कुछ इस तरह की थी कि उन्हें पीएम पद का उम्मीदवार भाजपा ने घोषित कर दिया। लेकिन वो भाजपा को सत्ता पर काबिज नहीं करवा सके। उसके बाद भी आडवाणी की महत्वकांक्षा कम नहीं हुई। उन्होंने संघ परिवार पर चोट करना शुरू किया। काफी कुछ उनकी चोट डालने का अंदाज अटल बिहारी वाजपेयी की स्टाइल में था। किसी समय में अटल बिहारी वाजपेयी ने संघ परिवार का  प्रभाव पार्टी पर कम किया था। खासकर उस समय जब देश में एनडीए की सरकार थी। लेकिन आडवाणी यह भूल गए कि वो अटल बिहारी वाजपेयी नहीं है। आडवाणी ने संघ को हाल ही में सीधी चुनौती तब दी जब संघ के प्रिय नितिन गडकरी को उन्होंने दुबारा अध्यक्ष चुने जाने से रोक दिया। नितिन गडकरी के पक्ष में फैसला हो चुका था। नितिन गडकरी के लिए पार्टी में संविधान संशोधन किया गया था। लेकिन ताजपोशी के कुछ घंटों पहले आडवाणी ने कुछ इस तरह की चाल चली कि संघ परिवार चित हो गया। इसमें निश्चित तौर पर कांग्रेस के एक धड़े का सहयोग आडवाणी को था, जिसने मौके पर नितिन गडकरी की कंपनियों पऱ छापे डलवाए। संघ परिवार मौके पर दबाव में आया और गडकरी की जगह राजनाथ अध्यक्ष बन गए। लेकिन संघ परिवार आडवाणी की इस चोट को नहीं भूला था।
आडवाणी को इस बार भी गलतफहमी थी कि वो संघ पर दबाव बनाकर पिछली बार की तरह सारा कुछ अपने पक्ष में कर लेंगे। लेकिन इस बार संघ का पत्ता नितिन गडकरी की तरह कमजोर नहीं था। संघ का पत्ता नरेंद्र मोदी था जो साम,दाम, दंड, भेद की नीति को कहीं भी किसी पर इस्तेमाल कर सकता है। आडवाणी को उनकी हैसियत बता दी गई।  आडवाणी ने इस्तीफा तो दे दिया। लेकिन शालीनता से उन्हें बता दिया गया कि गोवा का फैसला नहीं बदला जाएगा। अगर बलराज मधोक की तरह जिंदगी जीना चाहते है तो इस्तीफा दे दीजिए। आडवाणी भी परिस्थिति को समझ गए। नरेंद्र मोदी को पिछले कई महीनों से पता था कि उन्हें चुनौती एलके आडवाणी से ही मिलेगी। इसलिए आडवाणी के खास लोगों को उन्होंने साम,दाम, दंड, भेद से तो़ड़ना शुरू कर दिया था। आडवाणी कैंप के अरूण जेतली मोदी के कैंप में चले गए। इसी तरह से कई और नेता अंदर खाते मोदी के संपर्क में हो गए थे। आडवाणी के पास बची हुई फौज में सिर्फ सुष्मा स्वराज और अनंत कुमार है। पार्टी का साफ संदेश सुष्मा स्वराज के लिए भी है। अगर खनन और भ्रष्टाचार के मामले में यदुरप्पा की बलि ली जा सकती है तो सुष्मा की बलि रेड्डी बंधुओं से संबंध के आधार पर  ली जा सकती है। सु्ष्मा को भी अपनी जमीनी हकीकत पता है। लोकसभा चुनाव जीतने के लिए उन्हें अपने गृह शहर अंबाला कैंट से मध्य प्रदेश के विदिशा तक जाना पड़ता है। अनंत कुमार को भी अपनी  हैसियत पता है। 2 जी केस में नीरा राडिया से संबंध उजागर होने के बाद संघ परिवार के पास उनकी भी कमजोर कड़ी है। उनकी भी बलि किसी समय ली जा सकती है। बचे वेंकैया नायडू। अंदर खाते मोदी से भी संपर्क में है। क्योंकि जिस राज्य से आते है वहां उन्हें जनता  नहीं जानती है। मजबूरी में दक्षिण के दूसरे राज्य में प्रवासी के तौर पर रहते है और राज्यसभा संघ परिवार की दया से पाकर दिल्ली में मजे लेते है। आखिर संघ से विरोध लेकर ये बेचारे आडवाणी कैंप के सिपाही कितनी देर लड़ाई लड़ेंगे ?

एलके आडवाणी देश के पुराने नेताओं की पीढी में से है। लेकिन कल के फैसले ने उन्हें अनुभवहीन साबित किया। आडवाणी को भारतीय राजनीति में सक्रिय कई दूसरे दलों के नेताओं से  भी  सीख लेनी चाहिए थी। देश के वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इसके उदाहरण है। प्रणव मुखर्जी ने कांग्रेस में रहते हुए एलके आडवाणी से कम जलालत नहीं झेली। इंदिरा गांधी के कैबिनेट में 1980 के दशक में वो वित्त मंत्री थे। मनमोहन सिंह उनके अधीन ही काम करने वाले अधिकारी थे। लेकिन 20004  में परिस्थितियां बदल गई। उनका ही मातहत देश का प्रधानमंत्री बन गया। मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में प्रणव मुखर्जी को आठ साल तक काम करना पड़ा। अलग-अलग मंत्रालय में। प्रणव मुखर्जी इस जलालत के बावजूद जनता में एक कामयाब संदेश देने में कामयाब हो गए। उन्होंने समय की परिस्थिति पहचानते हुए नेहरू गांधी परिवार के खिलाफ बगावत नहीं की। पीएम पद के दावेदार तो वो भी थे। लेकिन सोनिया गांधी उनसे डरती थी। उन्होंने यूपीए-1 और 2 के कार्यकाल के दौरान कांग्रेस के लिए संकट मोचक की भूमिका निभायी जिसे पूरा देश जानता है। इसे एक अनुभव की राजनीति कहते है, जिसमें मौके के हिसाब से अपने कद को बरकरार रखते हुए काम करना होता है। प्रणव मुखर्जी ने वही किया। मनमोहन सिंह पर भी उनका कामकाज हावी रहा। आज एक बार फिर किस्मत बदली। वो पांच साल के प्रणव बाबू राष्ट्रपति भवन पहुंच गए। किस्मत की बात होती है। सोनिया गाँधी तो हामिद अंसारी को राष्ट्रपति पर देखना चाहती थी। क्योंकि हामिद अंसारी सोनिया गांधी के यस मैन थे। मुखर्जी यस मैन नहीं थे। लेकिन राजनीतिक परिस्थिति इस तरह बदली की मुखर्जी की किस्मत चमक गई। वो राष्ट्रपति बन गए। एलके आडवाणी को कम से कम प्रणव मुखर्जी से सीख लेनी चाहिए थी।

एलके आडवाणी को यह मालूम होना चाहिए कि भाजपा में बुढापे या जवानी में विद्रोह के बाद सम्मान नहीं, पार्टी निकाला मिलता है। बुढापे का सम्मानजक एग्जिट अटल बिहारी वाजपेयी को मिला। हालांकि उनके राह में रोड़ा डालने में आडवाणी ने कोई कसर नही छोड़ी। कई लोग पहले विद्रोह कर बैठे लेकिन उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया गया। बलराज मधोक से लेकर केएन गोविंदाचार्य इसके उदाहरण है। आज गोविंदाचार्य की हालत यह है कि पार्टी में उन्हें लाने की तमाम कोशिशें नाकाम हो गई। कल्याण सिंह एक और उदाहरण है। पार्टी से बगावत की थी हाशिए पर आ गए। अब दुबारा पार्टी में वापस आ गए है। अगर अपने इस्तीफे को वापस नहीं लेते तो एलके आडवाणी का वही हाल होता जो मधोक, गोविंदाचार्य और कल्याण सिंह का हुआ था। वैसे कई लोगों को हाशिए पर लाने में आडवाणी ने कोई कम भूमिका नहीं निभायी है। आडवाणी वैसे तो पीएम पद के उम्मीदवार है, लेकिन अपने खास चेले अनंत कुमार के कारण यदुरप्पा की बलि ले ली।
एलके आडवाणी वैसे भी अब जनता की पसंद नहीं है। आडवाणी ने कई यात्राएं पिछले दस सालों में निकाली। लेकिन उनकी यात्राओं में सैकड़ों की संख्या जुटाने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती थी। उनकी सारी यात्राएं फ्लाप साबित हो गई। लेकिन वे 1990 की रथयात्रा के सपने से अभी तक नहीं निकले है। 2009 तक आते-आते यूपीए सरकार का बुरा हाल हो गया था। लेकिन आडवाणी 2009 में यूपीए को हरा पाने में सफल नहीं रहे। यूपीए की सीटें पहले से बढ़ गई। यूपीए 200 सीटें क्रास कर गई। जबकि भाजपा की सीटें पहले से घट गई। आखिर आडवाणी इतने लोकप्रिय थे तो 2009 में पीएम पद पर जनता उन्हें बिठा देती। लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। लेकिन एलके आडवाणी के सलाहकार अभी भी उन्हें पीएम पद का सपना दिखाते रहते है। इसका परिणाम यह हुआ कि जलालत के बाद भी इस्तीफा वापस लेना पड़ा।
संजीव पांडेय
संजीव पांडेय

वैसे जो कुछ एलके आडवाणी के एपीसोड में सामने आया वो भारतीय राजनीतिक संस्कृति का एक  एपीसोड ही है। इस तरह की घटनाएं हर राजनीतिक दल में घटती है। कांग्रेस में  इंदिरा गांधी के जमाने में भी ये घटनाएं घटी। महात्मा गांधी के समय में सुभाषबाबू को इसी तरह से कांग्रेस छो़ड़ना पडा। क्योंकि सुभाष बाबू बापू की पसंद नहीं थे। बापू की पसंद उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू थे। नेहरू के सामने वो किसी भी नेता को उभरते नहीं देख सकते थे। यहां तक की वल्लभ भाई पटेल को भी बापू के कारण कई बार नेहरू के सामने दबना पड़ा।  इंदिरा गांधी ने तो गजब की तानाशाह थी। पार्टी के कई नेता बाहर का रास्ता उनके सामने पकड़ चुके थे। सोनिया गांधी के जमाने में भी कई घटनाएं इस तरह की घटी। सीताराम केसरी के साथ किया गया अपमान सबके सामने है। पूर्व प्रधानमंत्री पीवीनरसिम्हा राव की मौत के बाद उनके शरीर को कांग्रेस मुख्यालय नहीं लाने दिया गया। जबकि शरद पवार, तारिक अनवर और पीएस संगमा को भी सोनिया विरोध के कारण पार्टी छोड़नी पड़ी। एक बार राजीव गांधी के समय में प्रणव मुखर्जी ने भी विद्रोह किया था। गुंडू राव के साथ मिलकर अलग पार्टी बनायी थी। लेकिन कुछ दिन बाद ही पार्टी में आ गए थे। दरअसल भाजपा में जो कुछ हो रहा है वो भारतीय  राजनीतिक संस्कृति ही है। संघ परिवार और भाजपा को देश के राजनीतिक परिवेश से अलग कैसे देख सकते है। अगर बापू के किसी जमाने में पसंद पंडित नेहरू थे और सुभाष बाबू को पार्टी छोड़ना पड़ा तो आज संघ की पसंद नरेंद्र मोदी है। नरेंद्र मोदी की कॉस्ट पर अब नहीं लगता कि संघ परिवार एलके आडवाणी की शर्तों को मानेगा।

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