बार डांस मसला : जनता का मत भी जाने कोर्ट

dance-bar-सिद्धार्थ शंकर गौतम- देश के सर्वोच्च न्यायालय ने मुंबई समेत महाराष्ट्र के डांस बार पर राज्य सरकार द्वारा लगी पाबंदी को हटाते हुए उच्च न्यायालय का निर्णय बरकरार रखा है। अब एक बार फिर तकरीबन आठ साल से बंद पड़े महाराष्ट्र के डांस बार गुलजार हो सकेंगे। गौरतलब है कि महाराष्ट्र सरकार ने २००५ में बांबे पुलिस एक्ट में संशोधन कर तीन सितारा होटलों से नीचे के सभी बियर बार और रेस्तरां में डांस पर रोक लगा दी थी। सरकार के फैसले के खिलाफ इंडियन होटल एंड रेस्तरां एसोसिएशन की याचिका पर बांबे उच्च न्यायालय ने अप्रैल २००६ में डांस बार पर रोक वाला राज्य सरकार का आदेश निरस्त कर दिया था जिसे महाराष्ट्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से उच्च न्यायालय का आदेश लागू करने पर लगी अंतरिम रोक भी हट गई है। अब महाराष्ट्र सरकार से लाइसेंस मिलने के बाद डांस बार खोला जा सकता है। हालांकि सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार से कहा है कि वह डांस पर पूरी तरह रोक लगाने के बजाए बांबे पुलिस एक्ट के प्रावधानों में बदलाव कर बार, होटल और रेस्तरां में अश्लील नृत्य पर रोक लगाने पर विचार कर सकती है। चूंकि फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है अतः इस पर कोई खुलकर बोलने को तैयार तो नहीं है किन्तु इस फैसले की मुंबई समेत महाराष्ट्र में मिश्रित प्रतिक्रिया आ रही है। सत्ता में बैठे माननीयों से लेकर आम आदमी तक सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का विरोध कर रहा है। २००५ में भले ही राज्य में कांग्रेस-राकांपा की संयुक्त सरकार हो किन्तु गृहमंत्री आर आर पाटिल के डांस बार बंद करने के फैसले को सभी दलों ने अपनी सहमति दी थी। कमोबेश हर दल के नेता का मानना था कि डांस बार भले ही मुंबई की पहचान बन गए हों किन्तु इनके देर रात तक खुलने से अपराधों का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। वहीं सभ्य समाज भी मुंबई में डांस बार के देर रात तक खुलने पर सरकार से नाराज था और जैसे ही उसे सरकार की मंशा पता चली उसने सरकार के फैसले की जमकर तारीफ़ की। कुल मिलाकर जनता की मर्जी के चलते सभी राजनीतिक दल डांस बार के खिलाफ हो गए। महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ बार एंड रेस्तरां एसोसिएशन और बार बालाओं की ओर से दलील दी गई कि बांबे पुलिस एक्ट में लोगों के मनोरंजन के लिए नृत्य की अनुमति दी गई है। उनका कहना था कि डांस बारों में करीब ७० हजार बालाएं काम कर रही थीं जो सरकार के रोक आदेश के बाद बेरोजगार हो गई हैं। इनमें से ७२ फीसद बार बालाएं शादीशुदा हैं और करीब ६८ फीसद अपने घरों की अकेली कमाऊ सदस्य। इन परिस्थितियों के मद्देनज़र पाटिल ने महाराष्ट्र की १५ हज़ार से अधिक बार बालाओं के पुनर्वास का आश्वासन दिया था जबकि बाकी को बाहरी बताकर उनकी जिम्मेदारी उठाने से इनकार कर दिया था। महाराष्ट्र सरकार की ओर से यह भी दलील दी गयी कि राज्य में सिर्फ ३४५ लाइसेंसी और करीब २५०० गैर लाइसेंसी बार चल रहे हैं जिनसे अश्लीलता को बढ़ावा मिल रहा है और इनकी आड़ में वेश्यावृति को प्रश्रय दिया जा रहा है। खैर सरकार और बार बालाओं के बीच बहस का मुद्दा चाहे जो हो किन्तु महाराष्ट्र सरकार का निर्णय स्वागतयोग्य तो ज़रूर था।

सिद्धार्थ शंकर गौतम
सिद्धार्थ शंकर गौतम

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने मुंबई समेत महाराष्ट्र में डांस बार खोलने की अनुमति दे दी है किन्तु यह इतना आसान भी नहीं लगता। दरअसल इस मुद्दे को लेकर एक बार फिर सभी राजनीतिक दल एक हो गए हैं। शिवसेना ने तो एक कदम आगे बढ़कर न्यायाधीशों और न्यायपालिका को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। वहीं सरकारी नुमाइंदे यह भी प्रचारित कर रहे हैं कि जो लोग डांस बार खोले जाने के समर्थक हैं क्यूं न उनके घर के पास ही डांस बार खोल दिए जाएं? सरकार भी हार मानने को तैयार नहीं है। सरकार ने डांस बार बंद करने को लेकर जो कारण गिनाये थे उनसे जनता का जुड़ाव था और सरकार यह जानती है कि यदि जनता साथ है तो न्यायालय के निर्णय के बाद भी उसके क्रियान्वयन को लेकर तमाम दिक्कतें आने वाली हैं। वहीं सरकार पुनरीक्षण याचिका भी दाखिल करने पर विचार कर रही है। एक मत यह भी है कि लाइसेंस लेने के नियम ही इतने कड़े कर दिए जाएं कि छोटे और मंझोले बार खुद को प्रस्तुत ही न करें। देखा जाए तो सरकार की इस साड़ी कवायद के पीछे कुछ ठोस वजहें हैं। महाराष्ट्र ने इस वक़्त ६० हज़ार से अधिक पुलिस बल की कमी है। मुंबई को तो यूं भी अपराध की राजधानी कहा जाता है। फिर बार बालाओं से लेकर बार मालिकों ने जिस तरह का सूचना तंत्र विकसित कर लिया था वह सुरक्षा के लिहाज से खतरा बन सकता था। अब ज़रा एक पक्ष पर और गौर करें; २००५ से लेकर २०१३ तक में काफी कुछ बदल गया है। यहां तक कि मुंबई में भी बदलाव हुआ है। अब मुंबई में अन्य राज्यों के लोगों की संख्या कहीं अधिक है। आम मुम्बईकर तो वैसे भी इन डांस बारों में नहीं जाता था। हां, जिस छोटे तबके की पसंद हुआ करते थे ये डांस बार; अब न तो वह छोटा तबका ही बचा है और न ही ऐसा माहौल। फिर जो बार मालिक थे, उन्होंने डांस बार बंद होने के बाद अन्य पेशों को अपना लिया और आज खुश हैं। सैकड़ों की संख्या में बार बालाएं भी मुंबई से कूच कर गयीं। इतने बदले माहौल में अब बार का धंधा दोबारा खड़ा करना आसान नहीं होगा। वह भी यह जानते हुए कि यह सरकार की मंशा के विरुद्ध है। न्यायालय का बार बालाओं के मानवीय पक्ष को देखते हुए चाहे जो फैसला हो पर इसे सभ्य समाज के लिए सही नहीं ठहराया जा सकता। पहली बार किसी सरकार ने इतनी हिम्मत दिखाई थी और न्यायालय ने उसकी हिम्मत को तोड़ दिया। ज़रा गौर करें, जब मुंबई समेत पूरे राज्य में वैध-अवैध डांस बार चलते थे तो सरकार के साथ ही कई विभागों को राजस्व की प्राप्ति होती थी। एक अनुमान के मुताबिक़ २००५ से २०१३ के मध्य सरकार को वैध डांस बारों से प्राप्त होने वाले राजस्व का करोड़ों का घाटा हुआ है। कौन सरकार होगी जो अपने राजस्व को ठुकराएगी पर महाराष्ट्र सरकार ने राज्य की कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए राज्य के खजाने पर बंदिश लगान उचित समझा। महाराष्ट्र सरकार का यह फैसला उन लोगों के लिए राहत था जिनके परिवार डांस बारों की जद में आकर तबाह हो गए थे। जो लोग मुंबई की सांस्कृतिक पहचान का उदाहरण देकर डांस बारों के पक्ष में हैं वे ज़रा यह बताने का कष्ट करें कि क्या विरासत और पहचान; कानून व्यवस्था और ज़िन्दगी से बड़ी है? महाराष्ट्र सरकार को सर्वोच्च न्यायालय से एक बार पुनः अपने फैसले पर विचार करने का निवेदन करना चाहिए ताकि २००५ से जो शांति मुंबई में छाई है उस पर ग्रहण न लगे।

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