गुरु परम्परा का एक समृद्ध इतिहास

gp3विजय शर्मा- आषाढ़ पूर्णिमा को सारे भारत में गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता
है। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। इसी दिन महर्षि वेदव्यास जी का
जन्म हुआ था। यही महर्षि व्यास हैं, जिन्होंने मनीषियों के ज्ञान को
लिपिबद्ध कर हमारी संस्कृति को वेदों का उपहार दिया, कई
पुराणों-महापुराणों की रचना की। वह ईश्वर के 24 अवतारों में से एक हैं।
इसीलिए गुरु पूर्णिमा के अवसर पर उनकी वन्दना ईश्वर के गुण रूप में की
जाती है। व्यास जी ने आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ब्रह्मसूत्र की रचना शुरू की
थी। तभी से इस दिन को व्यास पूर्णिमा या गुरु
पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। भारत में गुरु परम्परा का एक समृद्ध
इतिहास है। सूर्यकुल के गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ थे। श्री हनुमान जी ने
सूर्य से ही उनकी शर्तों के आधार पर शिक्षा प्राप्त की। सूर्यपुत्र यमराज
भी गुरु बने और ऋषिपुत्र नचिकेता को आत्मज्ञान की दीक्षा दी। भगवान होते
हुए भी श्रीकृष्ण ने
महर्षि संदीपनि से शिक्षा प्राप्त की। भागवत के अनुसार उन्होंने चौंसठ दिन में
चौसठ कलाओं में प्रवीणता प्राप्त कर ली। उन्हें प्रथम जगत्गुरु कहा गया है।
महान् गुरुओं की गुरु दक्षिणाओं के अनेक निराले उदाहरण इतिहास में मिलते
हैं। कहा जाता है कि भगवान कृष्ण ने अपने गुरुदेव के मृत पुत्र को यमलोक
से वापस ला दिया था। महर्षि अगस्त्य ने अपने शिष्य मुनि सुतीक्ष्ण जी से
भगवान के दर्शन कराने की दक्षिणा मांगी थी। महर्षि अगस्त्य के आश्रम में
श्रीराम को वे स्वयं ले गए और गुरु दक्षिणा की शर्त पूरी की थी।
श्री शुकदेव जी तो जन्म लेने से पूर्व ही ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। इतने
महान जन्मजात संत को भी व्यास जी ने गुरु दीक्षा लेने राजर्षि जनक के पास
भेजा। गुरु तो सभी महान होते ही हैं। कुछ उदाहरण शिष्यों की महत्ता का भी
देखें। आरुणि नामक शिष्य से गुरुदेव धौम्य बहुत प्रेम करते थे। एक दिन
बहुत
वर्षा हो रही थी। गुरुदेव ने आरुणि को आदेश दिया- जाओ खेत में पानी रोकने
की व्यवस्था करो। आरुणि खेत पर चला गया। उसने देखा कि एक ओर मेड़
(सीमा) तोड़कर पानी बाहर निकल रहा है। उसने फावड़ा लेकर मिट्टी खोदी और
उस जगह डाली। जब तक वह पुन: मिट्टी लाता तब तक पहली मिट्टी पानी से बह
जाती। सैकड़ों बार प्रयास किया पर पानी न रुका। आरुणि मेड़ की टूटी जगह
स्वयं लेट गया। पानी रुक गया। रात को उसे खोजते-खोजते गुरुदेव वहां
पहुंचे। उन्होंने उसे मेड़ से निकाला और गुरु भक्ति की प्रशंसा करते
हुए आशीर्वाद दिया कि सभी विद्या उन्हें बिना प्रयास आ जाएं।
एक और शिष्य थे- उपमन्यु। उनकी गुरुभक्ति अनुपम है। गुरुदेव धौम्य ने
उपमन्यु को गौएं चराने का दायित्व दिया। सुबह से शाम तक गाय चराते,
गुरुजी को प्रणाम करते और सो जाते। गुरुजी ने एक दिन पूछा- ‘सुबह से जाते
हो, दिन में खाते क्या हो?’ उपमन्यु ने कहा- भिक्षा मांग कर पेट भर
लेता हूं। गुरुजी ने कहा- भिक्षा का अन्न पहले गुरु को अर्पित करो फिर जो मिले
वह स्वयं खाओ। अब वह भिक्षा गुरु को अर्पित करता और स्वयं पुन: भिक्षा
मांगता और खा लेता। पता चला तो गुरुजी ने उस पर भी रोक लगा दी। फिर एक
दिन गुरुजी ने पूछा- अब तुम क्या खाते हो? उपमन्यु ने बताया- किसी गाय का
दूध पी लेता हूं। गुरुजी ने कहा- गाय का दूध भी बिना आज्ञा नहीं पीना।
फिर उसने पत्ते खाने शुरू किए। आंख की रोशनी कम होने के कारण एक दिन वह
एक कुएं में गिर गया। महर्षि ने उसे बाहर निकलवाया और आज्ञा का अक्षरश:
पालन करने के कारण प्रसन्न होकर शक्तिपात से समस्त विद्या उसे आशीर्वाद
स्वरूप प्रदान कर दी। ऐसे भी शिष्य थे समर्थ गुरु रामदास जी ने
जब शिष्यों को बताया कि उनके पेट में भयानक पीड़ा हो रही है तो सभी शिष्य
तरह-तरह के उपचार बताने लगे। शिवाजी ने गुरुदेव से कहा- महाराज! आप तो
सर्वसमर्थ हैं। अपनी पीड़ा का उपचार आप स्वयं ही बताएं। गुरुदेव ने कहा-
सिंहनी का दूध ही इस पीड़ा का उपचार है। शिवाजी तुरन्त लोटा लेकर निकल
पड़े। बरसात की रात थी। सिंहनी भी भीगी हुई एक गुफा में सिर छिपाए खड़ी
थी। शिवाजी ने प्रेम से दूध निकाला और गुरुदेव के समक्ष पहुंचे। गुरुदेव
की पीड़ा शांत हो गई। वह तो शिष्यों की परीक्षा थी। सद्गुरु रामकृष्ण
परमहंस के गले में बहुत कफ आ रहा था। उनके पास पीकदान रखा था। वे उसमें
कफ उगल रहे थे। विवेकानन्द भ्रमण करके लौटे तो शिष्यों ने बताया- गुरुदेव
को डाक्टर ने गले का कैंसर बताया है। हम सब अब उनके पास नहीं जा रहे।
कैंसर हमें भी पकड़ सकता है। विवेकानन्द जी ने कहा- यह शिष्यों की
परीक्षा है। गुरुदेव सर्वसमर्थ हैं वह चाहें तो स्वयं को ठीक कर सकते
हैं। सबके रोकने पर भी वे गुरुदेव के पास गए और उस पीक को उठाकर पी गए।
उन्होंने गुरु के प्रति चरम श्रद्धा व्यक्त की और सभी मित्र शिष्यों को निर्भय करके पुन:
गुरु सेवा में लगाया। स्वामी दयानन्द 36 वर्ष की अवस्था तक सच्चे गुरु की
खोज में घूमते रहे। अन्त में वे मथुरा स्वामी प्रज्ञाचक्षु श्री
विरजानन्द जी के आश्रम में पहुंचे। उन्होंने इस शर्त पर उन्हें शिष्य बनाना स्वीकार
किया कि जो पुस्तकें तुमने अब तक पढ़ी हैं उन्हें गठरी बांधकर यमुना में
बहा दो। दयानन्द जी ने आज्ञा का पालन किया। गुरु दक्षिणा में गुरु
विरजानन्द ने कहा- ‘मैं तुम्हारा जीवन चाहता हूं। जो कुछ तुमने सीखा है,
समझा है, वह सारे समाज को समझाओ। ज्ञान का प्रसार करो। विश्व का कल्याण
करो।’ स्वामी दयानन्द जी ने तभी संकल्प लिया कि वे आजीवन वैदिक धर्म का
प्रचार करेंगे।

विजय शर्मा
विजय शर्मा

डॉ. हेडगेवार जी ने संघ में स्वयं को या किसी अन्य को गुरु न मानकर
भगवाध्वज को ही गुरु माना ताकि गुरु से प्रेरणा तो लें। उनकी मानवीय
कमजोरी से प्रभावित न हों। बच्चों इन प्रकरणों से हमें सीख लेनी चाहिए।

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