जो मर गए थे, वो ज़िंदा हैं….

मोहम्मद अयूब की बातों से भी लापता सैनिकों के परिवारों की उम्मीद बढ़ी हैं.

सकीना दो महीने की थीं कि जब उनके पिता 1965 की लड़ाई में लापता हो गए.

वो पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में रहती हैं. सकीना ने बरसों पहले ही मान लिया था कि उनके पिता जंग में मारे गए, लेकिन अब उनके जिंदा होने की उम्मीद पैदा हुई है.

भारत की सुप्रीम कोर्ट में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि जंग के दौरान गिरफ्तार किए गए कुछ पाकिस्तानी सैनिकों को जम्मू की जेल में रखा गया है. इनमें सकीना के पता अली शेर भी शामिल हैं.

सकीना कहती हैं, “हमारी मां भी नहीं हैं, कोई भाई भी नहीं है. चाचा भी चल बसे. मेरी ख्वाहिश है कि अब्बा एक बार आ जाएं, उनको देख लूं. उसके बाद मौत भी आए तो कोई बात नहीं. पहले हम सोचते थे कि वो मर चुके हैं. मगर अब उम्मीद है कि वो आ जाएं. अब सारे लोग कहते हैं कि वो जिंदा हैं. अल्लाह हमें मिलाए.”

सकीना की तरह ही कोटली जिले में स्थित उनके गांव के कई परिवारों को अपने रिश्तेदारों का इंतजार है. इस गांव के कुल सात सैनिक 1965 के युद्ध के दौरान लापता हो गए थे.

‘जेलों में बंद हैं कैदी’

मोहम्मद बशीर की उम्र 1965 के युद्ध के दौरान तीन साल थी. वो भी बरसों तक यही सोचते रहे कि उनके पिता बरकत हुसैन लड़ाई में मारे जा चुके हैं. लेकिन 40 साल बाद 2006 में उन्हें पता चला कि उनके पिता बरकत हुसैन जिंदा हैं.

बशीर कहते हैं, “2006 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक सदस्य अयूब खोखर ने मुझे बताया कि उनकी जम्मू सेंट्रल जेल में मेरे पिता से मुलाकात हुई और वे जेल में एक साथ रहे हैं. अल्लाह पर भरोसा है कि अगर जिंदगी रही तो मुलाकात होगी. हमारी इच्छा है कि हम उनसे मिल पाएं, उन्हें देख पाएं और उनकी सेवा कर पाएं.”

अब चरमपंथ का रास्ता छोड़ चुके मोहम्मद अयूब का संबंध भी जिला कोटली से है. उन्हें पंद्रह साल बाद 2006 में भारत की कैद से रिहाई मिली जिसके बाद वो घर लौटे.

अयूब का कहना है कि ताई गांव के दो पूर्व पाकिस्तानी सैनिकों से उनकी मुलाकात जम्मू सेंट्रल जेल में 1998 में हुई थी.

‘सरकार ने नहीं सुनी बात’

वो बताते हैं, “सखी मोहम्मद और बरकत हुसैन दोनों बुजुर्ग हैं. उन दोनों से मेरी मुलाकात जम्मू जेल में हुई. उन्होंने मुझे बताया कि वो ताई गांव के रहने वाले हैं.”

अयूब के अनुसार इन लापता सैनिकों ने बताया कि उनके चार और साथी भी पकड़े गए थे जिनमें से एक साथी कठुआ और दूसरे को हीरा नगर की जेल में रखा गया है जबकि दो लापता हैं.

इस खबर के बाद के ताई गांव के लापता सैनिकों के परिवार वालों को ये उम्मीद पैदा हो गई है कि शायद उनके रिश्तेदार जिंदा हैं.

उन्होंने अपने खोए रिश्तेदारों की तलाश के लिए पाकिस्तानी और कश्मीरी अधिकारियों से मदद मांगी है, लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई.

पिछले साल छह में से चार लापता सैनिकों बरकत हुसैन, सखी मोहम्मद, आलम शेर और बगा के परिवार वालों ने भारत की सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की.

ये याचिका भारत प्रशासित कश्मीर के एक संगठन ‘लीगल ऐड कमेटी’ ने दाखिल की जिसे कार्यकारी अध्यक्ष वरिष्ठ वकील प्रोफेसर भीम सिंह हैं.

कानूनी जंग

भीम सिंह के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका के जबाव में भारत प्रशासित कश्मीर के डीआईजी (जेल) ने अदालत में स्वीकार किया कि तीन पाकिस्तानी सैनिक बरकत हुसैन, आलम शेर और सखी मोहम्मद छह सितंबर 1965 को गिरफ्तार हुए, जिन्हें बाद में जम्मू की सेंट्रल जेल में रखा गया.

भीम सिंह का कहना है कि उन्होंने अपनी याचिका में गिरफ्तारी की तारीख का कोई उल्लेख नहीं किया था, लेकिन डीआईजी (जेल) ने गिरफ्तारी की तारीखें भी दी हैं.

भीम सिहं कहते हैं कि उन्होंने 1965 में अब्दुल अजीज नाम के एक और पाकिस्तानी सैनिक की गिरफ्तारी की बात मानी है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में इस सैनिक का जिक्र नहीं है.

भीम सिंह ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने इन सैनिकों को अदालत में पेश करने का आदेश दिया, लेकिन दिल्ली और श्रीनगर की सरकारों ने बताया के ये लोग जम्मू कश्मीर में नहीं हैं. भीम सिंह ने बताया कि इस महीने इस मुकदमे में आखिरी बहस होगी.

लापता पाकिस्तान सैनिकों के परिवार वालों ने पाकिस्तान सरकार से अपील की है कि अगर उनके रिश्तेदार जिंदा हैं, उनकी घर वापसी के लिए कदम उठाए जाएं.

 

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