राजस्थान में जोरों पर है ‘पेड न्यूज’ का धंधा

news paperकानाफूसी है कि सालों ने दलाल बनाकर रख दिया है। क्या यही करने को मीडिया में आए थे। इनकी तो ……., बड़े संपादक बने फिरते हैं। लेखों और भाषणों में तो साले ऐसे बड़े-बड़े, अच्छे-अच्छे उपदेश देते हैं कि साधुओं की जमात भी शरमा जाए और बातें ऐसी टुच्ची कर रहे हैं कि किसी को बता भी नहीं सकते। भिखारियों जैसी हालत कर दी है। पैसे लाओ-पैसे लाओ। दिन में दस बार फोन। इन हरामियों से पूछो कि कोई दे नहीं रहा है तो लाएं कहां से? यह तो उन लोगों से हमारे आपसी संबंध है, रोजाना का उठना-बैठना है वरना तो वो …….. पर लात मारकर बाहर कर दें। जिन्दगी में आगे भी कौन सा मुहं दिखा पाएंगे उन्हें। चुनाव कवरेज से जुड़े राजस्थान के ज्यादातर रिपोर्टरों की जुबान पर इन दिनों यही कुछ है। मौका मिलते ही अपने संपादकों की मां-बहन से अपना जुबानी रिश्ता जोड़ रहे हैं। कहने के लिए हर अखबार और चैनल ने सरकारी स्लोगन ‘नो पेड न्यूज’ का मुखौटा लगा रखा है परंतु छोटा हो या बड़ा हर अखबार-चैनल अपनी पूरी नंगई पर उतरा हुआ है। मंडी में खड़ी इन अखबारी-चैनल वेश्याओं ने अपने दाम तय कर दिए हैं। सबसे तेज बढ़ते के सबसे ज्यादा दाम हैं आठ लाख प्रति प्रत्याशी, उपदेश बगैर अपनी बात पूरी नहीं करने वाले के सात लाख प्रति प्रत्याशी, इसके बाद किसी के पांच लाख हैं तो किसी के तीन लाख। अखबार हिन्दी का हो या अंग्रेजी का, चैनल राष्ट्रीय हो या प्रादेशिक या फिर बिना लाइसेंस के अवैध रूप से केबल पर चल रहा लोकल। सभी के दाम तय हैं। संपादकों का सीधा फरमान है। पैसा लाओ, कैसे भी लाओ, जो ना दे उसकी खबर मत छापो। जो दे सिर्फ उसी की खबर छापो। पैकेज बता दो। रोजाना फोटो समेत जनसंपर्क की खबर। ज्यादा बोले तो सौदे में तीन दिन में एक विज्ञापन भी जोड़ दो वो भी डीपीआर रेट पर। वसूली अभियान जोरों पर है। कुछ रिपोर्टर भी कम नहीं हैं। प्रत्याशी से ले रहे हैं पांच लाख, संपादक को पहुंचा रहे हैं तीन लाख। सर इतने ही दे पाया है, वो भी बड़ी मुश्किल से। कई बार पीछे लगा तब। सामने वाले को तो दो ही दिए हैं। मैं फिर भी लगातार ट्राई में लगा हूं। जैसे ही बात बैठेगी, कुछ और ले ही लूंगा। पेड न्यूज को लेकर सरकारी टीमें चाक चौबंद होने का पूरा नाटक कर रही हैं। हर जिले में एक केंद्रीय चुनाव आयोग का, दूसरा राज्य चुनाव आयोग का, तीसरा हर विधानसभा में, फिर जिला स्तर पर एक टीम, फिर पीआरओ की एक टीम। कुल मिलाकर जिले में पांच से छह ऑब्जर्वर और पांच छह लोगों की एक मीडिया टीम बनी हुई है। सरकारी कारिंदों के लिए शोले फिल्म के गब्बर सिंह के डायलॉग, ‘ठाकुर ने हिजड़ों की फौज लगाई है’ यहां सौ फीसदी सही साबित हो रहा है। पर्यवेक्षकों को दिखाई नहीं दे रहा है कि करोड़पति प्रत्याशी मोची के पास बैठकर जूते गांठने, मैकेनिक के साथ औजार संभालने, अपने घर के बेडरूम में पंद्रह साल के बच्चे को खाना खिलाने, थड़ी वाले से चाय की केतली छीनकर चाय बनाने के फोटो अखबारों में छप कैसे रहे हैं? प्रेस फोटोग्राफर बेडरूम तक कैसे पहुंच रहा है वो भी उस वक्त जब प्रत्याशी डाइनिंग टेबल की जगह पलंग पर बेटे को खाना खिला रही हैं। उसी थड़ी पर फोटोग्राफर एक टांग पर क्यो खड़ा है जहां प्रत्याशी चाय बना रहा है। प्रत्याशियों के दफतरों में लंगर चल रहे हैं, जाम पर जाम टकरा रहे हैं, गाडियां की रेलमपेल है, नकदी बंट रही है। लंगर खाकर डकार लेने वाले, फोकट की दारू पीकर उल्टी करने वाले, उनकी गाडियों में मौजी खाने वाले और पांच सौ हजार की शक्ल में नोटों के लिफाफे और बगल में दारू की बोतलें लेने वाले फोटोग्राफरों को ये दिखाई ही नहीं दे रहा है, फोटो किस बात का खींचें? कहीं हो क्या रहा है जो पत्रकारों को पता लगे और वे खबरें छाप सके। कहने के लिए धार्मिक स्थलों पर प्रचार की रोक है परंतु रोजाना ही किसी प्रत्याशी का चर्च में स्वागत हो रहा है तो कोई गुरूद्वारे में मत्था टेक रहा है, कोई मंदिर में सिर झुका रहा है तो कोई मोहर्रम के जुलूस में शामिल हो रहा है। इनकी फोटो समेत खबरें अखबारों में हैं। सारी दुनिया देख और पढ़ रही है। नहीं दिख रहा है तो सरकारी कारिंदों को। दिखेगा भी कैसे वेश्याओं के लिए असली दलाल हिजड़े ही तो होते हैं। रजवाड़ों के रनिवासों और हरमों की जिम्मेदारी खवासों और हिजड़ों के ही जिम्मे रहती थी क्योंकि उनसे व्याभिचार का खतरा नहीं रहता था। लोकतंत्र के इस चुनावी नाटक में भी क्या सचमुच पेड न्यूज का बोलबाला नहीं है? कुलमिलाकर राजस्थान में बड़ी ईमानदारी से चुनाव हो रहा है। भावी विधायक 16 लाख खर्च की चुनावी सीमा को देखते हुए मात्र पांच-छह लाख में ही चुनाव का प्रचार कर रहे हैं। चुनाव आयोग और पर्यवेक्षक भी खुश हैं कि कहीं किसी तरह की कोई अनियमितता या गड़बड़ी नहीं है। चहुं ओर राम राज्य है।
एक पत्रकार द्वारा भेजे गये पत्र पर आधारित http://bhadas4media.com

1 thought on “राजस्थान में जोरों पर है ‘पेड न्यूज’ का धंधा”

  1. Mahre to Girdhar Tejwani——-kya baat hai, kya baat hai, ye journalism intectuality ka hai ya netaon ki jeb katney ka, jinhon ney pichhley 5 saalon se janta ki jeb kati hai. Ye Ajmer ke journalist newspapers ki naukri kyon kartey hain, inhen to election year main sirf 3 mahiney job karkey apne liye 5 saal ki kamai kar leni chahiye aur phir baki 4 saal aur 9 mahiney apni khatiya todney chahiye, kyon ajmer ke aakhbaar naweezo!

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