मोदी के सामने चुनाव लडने पर चुप हो गए केजरीवाल

arvind kejariwal 5जो लोग ये मृगमरीचिका पाले बैठे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल सीधे-सीधे नरेंद्र मोदी से भिड़ेगे, वो बगल में रखे घड़े से पानी पी लें, वरना प्यास से गला सूखता रहेगा. भई, अगर केजरीवाल अब भी उतने ही -आम आदमी- होते, जैसा दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले थे, तो कल यूपी में अपनी सभा में साफ-साफ कह देते कि नरेंद्र मोदी देश में चाहे कहीं से भी लड़ें, उनके खिलाफ में चुनाव लड़ूंगा. लेकिन केजरीवाल कन्नी काट गए. वो अब कांग्रेस के राहुल और बीजेपी के नरेंद्र मोदी की श्रेणी में आ गए हैं. सो उन्हें यूपी के बनारस से चुनाव लड़ाने के लिए संजय सिंह और दूसरे नेता मनुहार करते नजर आए. कहते रहे कि हम केजरीवाल जी से अपील करते हैं कि वो बनारस से चुनाव लड़ें. यह सब देख-सुनकर मैं दंग हूं. ये पता था कि सत्ता का स्वाद चखने के बाद आम आदमी पार्टी बदलेगी, लेकिन -राजनीति का वायरस- उन्हें इतनी जल्दी बीमार कर देगा, ये अंदेशा ना था. क्यों केजरीवाल साहब, शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए आपसे पार्टी के कितने नेताओं ने सार्वजनिक मंच से मनुहार-अपील की थी. अगर नहीं की थी, तो मोदी के मामले में क्यों ?? और आप तो इतने बेशर्म निकले कि उसके बाद भी मंच से ये सीधे तौर पर नहीं कहा कि हां, मैं मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ूंगा. मोदी को वैसे नहीं ललकारा, जैसे दिल्ली में शीला को ललकारा था. और आपको इस बात पर भी शर्म नहीं आई कि सुब्रत राय सहारा के मामले में आपके श्रीमुख से एक शब्द आजतक नहीं निकला. आपने यूपी में जनसभा की, फिर भी चुप रहे. यह हाल तब है जब -भ्रष्टाचार- आपके चुनाव कैम्पेन का फोकस है और इसी मुद्दे पर मुकेश अंबानी को निशाना बनाकर आपने दिल्ली सरकार की गद्दी छोड़ दी थी.

एक बात और. अगर आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल इस मुगालते में हैं कि वे आमने-सामने की टक्कर में (गुजरात ना सही, यूपी में ही सही) शीला दीक्षित की तरह नरेंद्र मोदी को भी धूल चटा देंगे, तो उनका यह कदम कुल्हाड़ी पर अपना पैर मारने जैसा होगा. फिर भी अगर केजरीवाल ये ऐलान कर देते कि चाहे जो हो, राजनीति में अपनी अलग राह बनाने के लिए वो और उनकी पार्टी ये जोखिम लेने के लिए तैयार हैं, तो इसका देश की जनता में जबरदस्त मैसेज जाता. और इस मैसेज को हल्के में लेने की भूल मत कीजिएगा. ये इसी मैसेज का कमाल था कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 28 सीटें मिल गई थीं. फिलहाल तो मुझे यही लग रहा है कि दिल्ली के अलावा आम आदमी पार्टी देश में कहीं भी कोई कमाल नहीं कर पाएगी. अगर मेधा पाटकर जैसे इक्के-दुक्के लोग कहीं से जीत भी जाते हैं तो वे अपने व्यक्तित्व के कारण जीतेंगी-जीतेंगे, आम आदमी पार्टी के कारण नहीं. और दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी का वो करिश्मा अब नहीं दिखेगा, जो विधानसभा चुनावों में दिखा था. मतलब कि दिल्ली की ज्यादातर सीटें बीजेपी के पास जाती मुझे दिख रही हैं.

पत्रकार नदीम एस. अख्तर के फेसबुक वॉल से.
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