जनसंहारों का दंश अब भी झेल रहा है बिहार

बिहार में नब्बे के दशक जैसे ख़ूनी दौर की वापसी अब भले ना हो, लेकिन ‘मुखिया’ हत्याकांड से जुड़ी जातीय राजनीति का जहर अन्दर-ही-अन्दर काम करने लगा है.

राज्य की सत्ता में साझीदार दोनों दल (भाजपा और जदयू) भविष्य में अलग-अलग होने जैसी स्थिति में इस घटना का इस्तेमाल कर सकते हैं.

उधर जनसंहार के कई बड़े मामले या तो अदालतों की लम्बी क़ानूनी प्रक्रिया में वर्षों से पड़े हुए हैं या अंतिम फ़ैसले के बाद भी सवाल बने हुए हैं.

उन जनसंहारों की यादें मध्य और दक्षिण बिहार के कई ज़िलों में लोगों के दिलो-दिमाग को सामाजिक स्तर पर अब भी सहज नहीं होने दे रही हैं.

गया ज़िले के बारा गाँव में माओवादियों ने दो दशक पहले 35 लोगों की हत्या कर दी थी. उस मामले में मौत की सज़ा प्राप्त चार अभियुक्त दया-माफी का इंतज़ार कर रहे हैं जबकि बाकी नौ उम्र कैद वाले अभियुक्त जेल से छूट गए हैं.

राजपूतों की हत्या

उससे पहले वर्ष 1987 में औरंगाबाद ज़िले के दलेलचक बघौरा में राजपूत समाज के 48 लोगों का क़त्ल किया गया था. इस मामले में आठ अभियुक्तों को मिली मौत की सज़ा, उम्रकैद में बदल चुकी है.

जहानाबाद ज़िले के सेनारी में 13 साल पहले 34 लोगों की हत्या के मामले में अभी सुनवाई चल ही रही है. जबकि औरंगाबाद ज़िले के मियांपुर में 12 साल पहले 33 लोगों के जनसंहार से जुड़े मामले में स्पीडी ट्रायल चलाकर सभी अभियुक्तों को सज़ा दी दे गई है.

जाति, ज़मीन और मजदूरी के सवाल पर तीस वर्षों तक जारी रहने वाले ख़ूनी संघर्ष के खाते में लगभग साठ सामूहिक हत्याकांड और लगभग छह सौ मौतें दर्ज हैं.

लालू-राबड़ी शासनकाल में वर्ष 1992 से लेकर 2000 के बीच मुख्यतः जाति-विद्वेष वाले छोटे-बड़े जनसंहारों की कुल 47 घटनाएँ घटीं. इनमें 471 लोग मारे गये.

उन्मादी राजनीति

ज़ाहिर है कि उस समय की जाति-उन्मादी राजनीति ने जहाँ सामंती सोच को और भड़काया, वहीं वर्ग संघर्ष वाली नक्सली सोच को जाति-संघर्ष की तरफ़ भटकाया.

फिर परिस्थितियां कुछ इस तरह बदल गईं कि लालू-राबड़ी शासन काल के अंतिम चार वर्षों में जनसंहार बिल्कुल नहीं हुए.

इसलिए जब जनसंहार रोक देने का श्रेय नीतीश सरकार लेने लगी, तो उसे जानकारों ने हास्यास्पद और गलत ठहराया.

दरअसल, जातिगत जोड़-तोड़ वाली राजनीतिक सत्ता को भी पता है कि जाति-युद्ध का वह सिलसिला शासन के बूते नहीं, समाज के बूते रुका.

जाति आधारित निजी सेनाओं के मंद पड़ जाने के बावजूद अति वामपंथी दो धाराएँ यहाँ बहती रहीं. लेकिन इनमें ख़ूनी संघर्ष से अलग हटकर जन संघर्ष अपनाने वाली धारा का ही सामाजिक आधार बढ़ सका.

आईपीएफ का गठन

पहले जो इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) बना था, वही बाद में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन यानी भाकपा- माले नाम से उभरा.

बोलचाल में ‘ माले ‘ नाम से बहुचर्चित हुई इस पार्टी के तेवर शुरू से ही खासे जुझारू थे. उसने भोजपुर, जहानाबाद और आस-पास के ज़िलों में ग़रीब, दलित-पिछड़ों के बीच गहरी पैठ बना ली थी.

उधर ‘ एमसीसी’ और ‘ पीपुल्स वार’ ( बाद में दोनों मिलकर बनी भाकपा-माओवादी) नामक संगठन गया, औरंगाबाद और जहानाबाद ज़िलों में ऊंची जातियों को निशाना बना रहा था.

उस दौर को बीते कई साल हो गये, फिर भी जब चुनाव का वक़्त आता है तो प्रखर जातिवादी तबक़ा उस ज़हर के इस्तेमाल में जुट जाता है.

हालांकि जातिवादी हिंसा की दशा-दिशा इतनी बदल चुकी है कि वो अब जनसंहार की हद तक नहीं पहुच पाती है.

भोजपुर से गहरा सरोकार रखने वाले सजग साहित्यकार अनंत सिंह वहाँ अब संघर्ष का ख़ूनी रंग-रूप बदला हुआ पाते हैं.

‘संघर्ष जारी’

उनका कहना है, ” मैं समझता हूँ कि हत्या के बिना भी कारगर संघर्ष हो सकता है और आज भी भोजपुर में जनसंघर्ष हो रहा है. राजनीतिक पार्टियों द्वारा जाति-द्वेष फैलाने के बावजूद हत्याओं का वह दौर थम गया, क्योंकि लोगों ने बिना हिंसा के संघर्ष का रास्ता चुना.”

विडम्बना देखिये कि अब बिहार में हत्या की घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्धि के सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि उन जनसंहारों से अधिक मौतें हर साल हो रही हैं.

क़ानून-व्यवस्था को मुंह चिढाने वाली इन हत्याओं की सुर्खियाँ इसलिए नहीं बनतीं क्योंकि बिहार में अमन-चैन के सरकारी दावे का विज्ञापन उन पर भारी है.

 

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