बिस्मिल के पिता नहीं चाहते थे कि बेटा अंग्रेजी पढे

ram-prasad-bismil-profile-नई दिल्ली। भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून, 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित मुरलीधर था। राम प्रसाद बिस्मिल महान स्वतन्त्रता सेनानी होने के साथ ही उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाविद व साहित्यकार भी थे जिन्होंने भारत की आजादी के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी। रामप्रसाद बिस्मिल के लिखे सरफरोशी की तमन्ना जैसे अमर गीत ने हर भारतीय के दिल में जगह बनाई और अंग्रेजों से भारत की आजादी के लिए वो चिंगारी छेड़ी जिसने ज्वाला का रूप लेकर ब्रिटिश शासन के भवन को लाक्षागृह में परिवर्तित कर दिया। ब्रिटिश साम्राज्य को दहला देने वाले काकोरी कांड को रामप्रसाद बिस्मिल ने ही अंजाम दिया था।

शिक्षा :

सात वर्ष की अवस्था हो जाने पर बालक रामप्रसाद को पिता पंडित मुरलीधर घर पर ही हिंदी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। उस समय उर्दू का बोलबाला था। अत: घर में हिंदी शिक्षा के साथ ही बालक को उर्दू पढ़ने के लिए एक मौलवी साहब के पास मकतब में भेजा जाता था। पंडित मुरलीधर पुत्र की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे। पढ़ाई के मामले में जरा भी लापरवाही करने पर बालक रामप्रसाद को पिता की मार भी पड़ती रहती थी। हिंदी अक्षरों का ज्ञान कराते समय एक बार उन्हें बन्दूक के लोहे के गज से इतनी मार पड़ी थी कि गज टेढ़ा हो गया था। आठवीं कक्षा तक सदा अपनी कक्षा में प्रथम आते थे, लेकिन कुसंगति में पड़ जाने के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। बालक की इस अवनति से घर में सभी को बहत दुख हुआ। दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर बालक रामप्रसाद का मन उर्दू की पढ़ाई से उठ गया। उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की, किन्तु पिता पंडित मुरलीधर अंग्रेजी पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे। वह रामप्रसाद को किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे। अंत में मां के कहने पर उन्हें अंग्रेजी पढ़ने भेजा गया। अंग्रेजी में आठवीं पास करने के बाद नवीं में ही वह आर्य समाज के सम्पर्क में आये, जिससे उनके जीवन की दशा ही बदल गई।

उद्दण्ड स्वभाव :

रामप्रसाद बिस्मिल अपने बचपन में बहुत शरारती तथा उद्दण्ड स्वभाव के थे। दूसरों के बागों के फल तोड़ने तथा अन्य शरारतें करने में उन्हें बड़ा आनन्द आता था। इस पर उन्हें अपने पिताजी के क्रोध का भी सामना करना पड़ता था। वह बुरी तरह पीटते थे, किन्तु इसका भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। एक बार किसी के पेड़ से आड़ू तोड़ने पर उन्हें इतनी मार पड़ी थी कि वह दो दिन तक बिस्तर से नहीं उठ सके थे।

किशोर अवस्था में बुरी आदतें :

यह एक कटु सत्य है कि अभिभावकों की हर अच्छी-बुरी आदतों का प्रभाव बच्चों पर अवश्य ही पड़ता है। भले ही अबोध बच्चे अपने बड़ों की बुरी आदतों का विरोध नहीं कर पाते; परन्तु इससे उनके अचेतन मन में एक विरोध की भावना घर कर जाती है। कभी-कभी बच्चे स्वयं भी उन बुरी आदतों की ओर आकृष्ट हो जाते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ही जिज्ञासु होता है। इसके साथ ही बच्चे के साथ मार-पीट और कठोर व्यवहार उसे जिद्दी बना देता है। कदाचित् अपने पिता की नशे की आदत तथा कठोर व्यवहार का बालक राम प्रसाद पर भी दुष्प्रभाव पड़े बिना रहीं रह सका। पण्डित मुरलीधर के एक मित्र चटर्जी, जो एक कैमिस्ट थे; उनकी अंग्रेजी दवाओं की दुकान थी। चटर्जी महाशय अनेक प्रकार के नशों के आदी थे। एक बार में आधी छटांक चरस पी जाना उनक लिए सामान्य सी बात थी। बाद में उन्हें शराब की भी लत पड़ गई थी। अन्तत: ये नशे उन्हें ले डूबे। उन्हें बीमारी ने जकड़ लिया और वह दुनिया से चल बसे। इन्हीं चटर्जी महाशय से पण्डित मुरलीधर का परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ प्रेम में परिवर्तित हो गया। फलत: मित्र के सभी दुर्गुण उनमें भी आ गए। मुरलीधर भी चरस पीने लगे, जिससे उनके स्वास्थ्य की भयंकर हानि हुई। उनका सुन्दर बलवान शरीर सूखकर कांटा हो गया। उनके मित्रों तथा घरवालों को इससे बड़ी चिन्ता हुई। सभी ने उन्हें तरह-तरह से समझाया। तब कहीं जाकर बहुत दिनों के बाद उनकी चरस पीने की आदत छूट पाई।

चोरी और सिगरेट :

चौदह वर्ष की अवस्था में राम प्रसाद उर्दू की चौथी कक्षा में उत्तीर्ण होकर पांचवीं कक्षा में पहुंचे। अपनी इस किशोर अवस्था में उनमें अनेक दुर्गुण आ गए। वह घर से पैसों की चोरी करना सीख गए। इन पैसों से वह उपन्यास खरीदते। उपन्यास पढ़ना उनका प्रिय शौक बन गया। इसके साथ ही श्रृंगारिक साहित्य तथा उर्दू की गजलों का भी उन्हें चस्का लग गया। वह सिगरेट पीना भी सीख गए। यही नहीं भांग का भी स्वाद लिया जाने लगा। इन्हीं बुरी आदतों के कारण वह उर्दू मिडिल परीक्षा में दो साल अनुत्तीर्ण हो गए। बालक राम प्रसाद बुरी आदतों के दलदल में फंसते चले गए। इससे बच पाना उनके लिए कठिन हो गया। वह जिस पुस्तक विक्रेता से उपन्यास आदि खरीदते थे, वह पण्डित मुरलीधर का परिचित था। राम प्रसाद का अध:पतन देखकर उसे दुख हुआ। अत: उसने इसकी शिकायत राम प्रसाद के पिता से कर दी। पिता जी सावधान रहने लगे। बालक राम प्रसाद भी सावधान थे। उन्होंने उसकी दुकान से उपन्यास ख़रीदना ही बन्द कर दिया। संभवत: भगवान को राम प्रसाद का यह पतन स्वीकार नहीं था। एक बार वह भांग के नशे में डूबे हुए पिताजी के सन्दूक में हाथ साफ कर रहे थे। इतने में असावधानी से सन्दूक की कुण्डी ज़ोर से खटक पड़ी। इसे उनकी माताजी ने सुन लिया, और वह रंगे हाथों पकड़े गए। उन्होंने पिताजी के सन्दूक की दूसरी चाबी बनवा ली थी। इस पर उनके अपने सन्दूक में देखा गया। उसमें अनेक उपन्यास, गजलों की किताबें तथा रुपये भी रखे मिले। सभी पुस्तकें फाड़कर जला दी गईं। इसके बाद उनकी सभी गतिविधियों पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। पिताजी ने अपने सन्दूक का ताला ही बदल दिया। राम प्रसाद बुरी आदतों के शिकार हो चुके थे। आदतों का छूटना इतना आसान नहीं था। यद्यपि वह सुधरने का पूरा प्रयत्‍‌न करते, किन्तु सिगरेट छोड़ पाना उनके लिए बड़ा कठिन हो गया था। जब भी उन्हें मौका मिलता, वह अपनी मां के पैसों पर हाथ साफ़ करने से भी नहीं चूकते। परन्तु मां के पास इतने पैसे नहीं रहते थे कि उनके पहले की तरह सभी शौक पूरे हो सकें। अब स्वत: अपनी बुराई का आभास होने लगा कि ऐसा करना अच्छा नहीं था।

बुराइयों से मुक्ति :

अपनी इन बुरी आदतों के कारण राम प्रसाद मिडिल कक्षा में दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। उनकी इच्छा पर उन्हें अंग्रेज़ी स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया गया। उनके घर के पास ही एक मन्दिर था। इन्हीं दिनों इस मन्दिर में एक नये पुजारी जी आ गए; जो बड़े ही उदार और चरित्रवान व्यक्ति थे। राम प्रसाद अपने दादा जी के साथ पहले से ही मन्दिर में जाने लगे थे। नये पुजारीजी से भी राम प्रसाद प्रभावित हुए। वह नित्य मन्दिर में आने-जाने लगे। पुजारी जी के सम्पर्क में वह पूजा-पाठ आदि भी सीखने लगे। पुजारी जी पूजा-पाठ के साथ ही उन्हें संयम-सदाचार, ब्रह्मचर्य आदि का भी उपदेश देते थे। इन सबका राम प्रसाद पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह समय का सदुपयोग करने लगे। उनका अधिकतर समय पढ़ने तथा ईश्वर की उपासना में ही बीतने लगा। उन्हें इस कार्य में आनन्द आने लगा। इसके साथ ही वह व्यायाम भी नियमित रूप से करने लगे। उनकी सभी बुरी आदतें छूट गईं, किन्तु सिगरेट छोड़ना कठिन लग रहा था। इस समय वह प्रतिदिन लगभग पचास-साठ सिगरेट पी जाते थे। इस बुराई को न छोड़ पाने का उन्हें दुख था। वह समझते थे, सम्भवत: उनकी यह बुरी आदत कभी नहीं छूट पायेगी। उर्दू स्कूल छोड़कर उन्होंने मिशन स्कूल की पाँचवीं कक्षा में नाम लिखा लिया। यहां उनका अपने सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन से विशेष प्रेम हो गया। अपने इसी सहपाठी के सम्पर्क में आने पर उनकी सिगरेट पीने की आदत भी छूट गई।

नया विश्वास-नया जीवन

जिन दिनों राम प्रसाद अपने घर के पास वाले मन्दिर में ईश्वर की आराधना करते थे, तभी उनका परिचय मुंशी इन्द्रजीत से हुआ, जो आर्य समाजी विचारधारा के थे। उनका मन्दिर के पास ही रहने वाले किसी सच्जन के घर आना जाना था। राम प्रसाद की धर्म में अभिरुचि देखकर मुंशी इन्द्रजीत ने उन्हें संध्या उपासना करने का परामर्श दिया। राम प्रसाद ने संध्या विषय में उनसे विस्तार से पूछा। मुंशी जी ने संध्या का महत्व तथा उपासना की विधि उन्हें समझाई। इसके बाद उन्होंने राम प्रसाद को आर्य समाज के सिद्धान्तों के बारे में भी बताया और पढ़ने के लिए सत्यार्थ प्रकाश दिया। सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने पर राम प्रसाद के विचार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन आया। उन्हें वैदिक धर्म को जानने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इससे उनके जीवन में नये विचारों और विश्वासों का जन्म हुआ। उन्हें एक नया जीवन मिला। उन्हें सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य का महत्व आदि समझ में आया। उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का प्रण किया। इसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जीवनचर्या ही बदल डाली।

कुमार सभा की सदस्यता :

आर्य समाज से प्रभावित युवकों ने आर्य समाज मन्दिर में कुमार सभा की स्थापना की थी। प्रत्येक शुक्त्रवार को कुमार सभा की एक बैठक होती थी। यह सभा धार्मिक पुस्तकों पर बहस, निबन्ध लेखन, वाद-विवाद आदि का आयोजन करती थी। राम प्रसाद भी इसके सदस्य थे। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक रूप में बोलना प्रारम्भ किया। कुमार सभा के सदस्य शहर तथा आस-पास लगने वाले मेलों में आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार करते थे तथा बाज़ारों में भी इस विषय में व्याख्यान देते थे। इस प्रकार का प्रचार कार्य मुसलमानों को सहन नहीं हुआ। सम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ने का ख़तरा दिखाई देने लगा। अत: बाज़ारों में व्याख्यान देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। आर्य समाज के बड़े-बड़े नेता लोग कुमार सभा के सदस्यों को अपने संकेतों पर नचाना चाहते थे, परन्तु युवक उनका नियंत्रण स्वीकार करने को किसी प्रकार तैयार न थे। अत: कुमार सभा के लिए आर्य समाज में ताला लगा दिया गया। उन्हें मन्दिर में सभा न करने के लिए बाध्य कर दिया गया। साथ ही चेतावनी दी गई कि उन्होंने मन्दिर में सभा की तो उन्हें पुलिस द्वारा बाहर निकलवा दिया जायेगा। इससे युवकों को बड़ी निराशा हुई, उन्हें ऐसी आशा नहीं थी। फिर भी वे दो-तीन महीनों तक मैदान में ही अपनी साप्ताहिक बैठक करते रहे। सदा ऐसा करना सम्भव नहीं था। अत: कुमार सभा समाप्त हो गई। बुजुर्ग आर्य समाजियों ने अपनी नेतागिरी दिखाने के लिए युवकों की भावनाओं की हत्या कर दी।

अखिल भारतीय कुमार सभा का सम्मेलन

कुमार सभा के टूट जाने पर भी उसका शहर की जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ चुका था। लखनऊ में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन के साथ ही अखिल भारतीय कुमार सभा का भी वार्षिक सम्मेलन होने वाला था। राम प्रसाद इसमें भाग लेने के इच्छुक थे। इसमें भाग लेने पर कांग्रेस का अधिवेशन देखने का भी अवसर मिल जाता। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने घर वालों के सामने रखी, किन्तु उनके पिताजी तथा दादाजी इससे सहमत नहीं हुए। दोनों ने इसका प्रबल विरोध किया, केवल उनकी माताजी ने ही उन्हे वहां भेजने का समर्थन किया। उन्होंने पुत्र को वहां जाने के लिए खर्चा भी दिया, जिसके कारण उन्हें पति की डांट-फटकार का भी सामना करना पड़ा। राम प्रसाद लखनऊ गए तथा अखिल भारतीय कुमार सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन में लाहौर तथा शाहजहांपुर की कुमार सभाओं को ही सबसे अधिक पुरस्कार प्राप्त हुए। देश के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने इस समाचार को प्रकाशित किया था।

विदेशी राज्य के विरुद्ध प्रतिज्ञा :

लाहौर षड़यंत्र के मामले में सन 1915 में प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानंद को फांसी सुना दी गई। रामप्रसाद बिस्मिल भाई परमानंद के विचारों से प्रभावित थे और उनके हृदय में इस महान देशभक्त के लिए अपार श्रद्धा थी। इस फैसले का समाचार पढ़कर बिस्मिल का देशानुराग जाग पड़ा। उन्होंने उसी समय अंग्रेजों के अत्याचारों को मिटाने तथा मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सतत प्रयत्‍‌न करने की प्रतिज्ञा ली। यद्यपि भाई परमानंद की फांसी की सजा को बाद में महामना मदनमोहन मालवीय तथा देशबंधु एण्‌र्ड्यूज के प्रयत्‍‌नों से आजन्म कारावास में बदल दिया गया, किन्तु रामप्रसाद बिस्मिल जीवन पर्यन्त अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहे। इस प्रतिज्ञा के बाद उनका एक नया जीवन प्रारम्भ हुआ। पहले वह एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार के पुत्र थे, इसके बाद वह आर्यसमाज से प्रभावित हुए और एक सच्चे सात्ति्वक आर्यसमाजी बने तथा इस प्रतिज्ञा के बाद उनका जीवन मातृभूमि के लिए समर्पित हो गया। यह उनके हृदय में देश प्रेम के बीज का प्रथम अंकुरण था।

कांतिकारियों से संपर्क

लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए जाने पर रामप्रसाद बिस्मिल कुछ क्रांतिकारी विचारों वाले युवकों के सम्पर्क में आए। इन युवकों का मत था कि देश की तत्कालीन दुर्दशा के एकमात्र कारण अंग्रेज़ ही थे। रामप्रसाद भी इन विचारों से प्रभावित हुए। अत: देश की स्वतंत्रता के लिए उनके मन कुछ विशेष काम करने का विचार आया। यहीं उन्हें यह भी ज्ञात हुआ कि क्रांतिकारियों की एक गुप्त समिति भी है। इस समिति के मुख्य उद्देश्य क्रांतिकारी मार्ग से देश की स्वतंत्रता प्राप्त करना था। वह सब ज्ञात होने पर बिस्मिल के मन में भी इस समिति का सदस्य बनने की तीव्र इच्छा हुई। वह समिति के कायरें में सहयोग देने लगे। अपने एक मित्र के माध्यम से इसके सदस्य बन गए और थोड़े ही समय में वह समिति की कार्यकारिणी के सदस्य बना लिये गए। इस समिति के सदस्य बनने के बाद बिस्मिल फिर अपने घर शाहजहांपुर आ गए। समिति के पास आय का कोई स्त्रोत न होने से धन की बहुत कमी थी। अत: इसके लिए कुछ धन संग्रह करने के लिए उनके मन में एक पुस्तक प्रकाशित करने का विचार आया। पुस्तक प्रकाशित करने के लिए भी रुपयों की आवश्यकता थी। अत: उन्होंने एक चाल चली। अपनी मां से कहा कि वह कुछ काम करना चाहते हैं, इससे अवश्य लाभ होगा, अत: इसके लिए पहले कुछ रुपयों की आवश्यकता है। मां ने उन्हें दो सौ रुपये दिए। उन्होंने अमेरिका को स्वतंत्रता कैसे मिली नाम की एक पुस्तक पहले ही लिख ली थी। पुस्तक को प्रकाशित करने का प्रबंध किया गया। इसके लिए फिर से दो सौ रुपयों की आवश्यकता पड़ी। इस बार भी मां से दो सौ रुपये और लिए। पुस्तक प्रकाशित हुई। इसकी कुछ प्रतियां बिक गई, जिनसे लगभग छ: सौ रुपयों की आय हुई। पहले मां से लिए हुए चार सौ रुपये लौटा दिए गए। फिर मातृदेवी समिति की ओर से एक पर्चा प्रकाशित किया गया, जिसका शीर्षक था- देशवासियों के नाम संदेश। समिति के सभी सदस्य और भी अधिक उत्साह से काम करने लगे। यह पर्चा संयुक्त प्रांत के अनेक जिलों में चिपकाया गया और वितरित किया गया। शीघ्र ही सरकार चौकन्नी हो गई, अत: संयुक्त प्रांत की सरकार ने इस पर्चे तथा पूर्व लिखित पुस्तक, दोनों को जब्त कर लिया।

काकोरी काण्ड :

राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 10 लोगों ने सुनियोजित कार्रवाई के तहत यह कार्य करने की योजना बनाई। 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के काकोरी नामक स्थान पर देशभक्तों ने रेल विभाग की ले जाई जा रही संगृहीत धनराशि को लूटा। उन्होंने ट्रेन के गार्ड को बंदूक की नोक पर काबू कर लिया। गार्ड के डिब्बे में लोहे की तिज़ोरी को तोड़कर आक्त्रमणकारी दल चार हजार रुपये लेकर फरार हो गए। इस डकैती में अशफाकउल्ला, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, सचीन्द्र सान्याल, मन्मथनाथ गुप्त, रामप्रसाद बिस्मिल आदि शामिल थे। काकोरी षड्यंत्र मुकदमें ने काफी लोगों का ध्यान खींचा। इसके कारण देश का राजनीतिक वातावरण आवेशित हो गया।

सभी प्रकार से मृत्यु दंड को बदलने के लिए की गयी दया प्रार्थनाओं के अस्वीकृत हो जाने के बाद बिस्मिल अपने महाप्रयाण की तैयारी करने लगे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में गोरखपुर जेल में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। फांसी के तख्ते पर झूलने के तीन दिन पहले तक वह इसे लिखते रहे। फांसी के एक दिन पूर्व बिस्मिल के पिता अंतिम मुलाकात के लिए गोरखपुर आये। 19 दिसम्बर, 1927 की प्रात: बिस्मिल नित्य की तरह चार बजे उठे। नित्यकर्म, स्नान आदि के बाद संध्या उपासना की। जिस समय रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी लगी उस समय जेल के बाहर विशाल जनसमुदाय उनके अंतिम दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहा था। जेल के चारों ओर पुलिस का कड़ा पहरा था। शव जनता को दे दिया गया। जनता ने बिस्मिल की अर्थी को सम्मान के साथ शहर में घुमाया। लोगों ने उस पर सुगन्धित पदार्थ, फूल तथा पैसे बरसाये। हजारों लोग उनकी शवयात्रा में सम्मिलित हुए। उनका अंतिम संस्कार वैदिक मंत्रों के साथ किया गया।

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