क्या भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना कभी साकार हो पाएगा?

यह एक सर्वविदित सत्य है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के आखिरी दिनों तक जब प्रमुख विपक्षी दल भाजपा अपनी भूमिका में पूरी तरह से नाकामयाब रहा, तब समाजसेवी अन्ना हजारे का आंदोलन खड़ा हुआ। वह इतना प्रचंड था कि कांग्रेस की जड़ें ही हिला कर रख दीं। अन्ना हजारे की गलती ये थी कि वे व्यवस्था परिवर्तन की जमीन तो बनाने में कामयाब हो गए, मगर उसका विकल्प नहीं दे पाए। अर्थात वैकल्पिक राजनीतिक दल नहीं दे पाए। नतीजतन उनके ही शिष्य अरविंद केजरीवाल को उनसे अलग हो कर नया दल आम आदमी पार्टी का गठन करना पड़ा। मगर चूंकि वह भ्रूण अवस्था में था, इस कारण खाली जमीन पर भाजपा को कब्जा करने का मौका मिल गया। वह भी तब जबकि उसने नरेन्द्र मोदी को एक ब्रांड के रूप में खड़ा किया। ब्रांडिंग के अपने किस्म के भारत में हुए इस अनूठे व पहले प्रयोग को जबरदस्त कामयाबी मिली और कांग्रेस के खिलाफ आंदोलित हुई जनता ने कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के साथ मोदी को प्रतिष्ठापित कर दिया। मोदी ने प्रयोजित तरीके से पूरी भाजपा पर कब्जा कर लिया और अपने से कई गुना प्रतिष्ठित व वरिष्ठ नेताओं यथा लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सरीखों को सदा के लिए हाशिये पर डाल दिया। पूरे पांच साल के कार्यकाल को उन्होंने एक तानाशाह की तरह जिया और मंत्रीमंडल के अपने समकक्ष सहयोगियों अरुण जेठली, राजनाथ सिंह व सुषमा स्वराज सरीखे नेताओं को दबा कर रखा।

तेजवानी गिरधर
पांच साल तक नोटबंदी व जीएसटी जैसे पूरी तरह से नाकायाब कदमों और महंगाई, रोजगार व धारा 370 जैसे मुद्दों पर रत्तीभर की सफलता हासिल न कर पाने के कारण ऐसा लगने लगा कि मोदी ब्रांड की जीवन अवधि बस पांच साल ही थी। इसके संकेत कुछ विधानसभाओं के चुनाव में भाजपा की हार से मिल रहे थे। मगर चुनाव के नजदीक आते ही संयोग से उन्हें सर्जिकल स्ट्राइक करने का मौका मिल गया और यकायक उपजे नए राष्ट्रवाद ने मोदी की सारी विफलताओं पर चादर डाल दी। चुनाव आयोग सहित अन्य प्रमुख सवैंधानिक संस्थाओं को कमजोर कर उन्होंने बड़ी आसानी ने पहले से भी ज्यादा बहुमत से सत्ता अपने शिकंजे में ली ली। उन्होंने न केवल उत्तर प्रदेश में महागठबंध को धाराशायी कर दिया, अपितु पश्चिम बंगाल में धमाकेदार एंट्री भी की। यहां तक कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी पुश्तैनी सीट तक को नहीं बचा पाए। हार की जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया। ये पंक्तियां लिखे जाने तक गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के नए अध्यक्ष को लेकर उहापोह दिखाई दे रही है। ऐसे में भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा कामयाब होता दिखाई दे रहा है। गोवा व कर्नाटक में हुई उठापटक उसी दिशा में बढ़ते कदम हैं। यहां तक कि राजस्थान व मध्यप्रदेश की बारी आने के दावे किए जा रहे हैं।
इन सब के बावजूद यदि ये कहा जाए कि कांग्रेस मुक्त भारत का सपना कभी साकार नहीं हो पाएगा, वह अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, मगर यह एक सच्चाई है। कोई माने या न माने। हां, प्रयोग के बतौर गांधी-नेहरू परिवार मुक्त कांग्रेस जरूर बनाई जा सकती है, मगर पलेगी वह इसी परिवार के आश्रय में। रहा सवाल कांग्रेस मुक्त भारत का तो वह इसीलिए संभव नहीं है, क्योंकि कांग्रेस महज एक पार्टी नहीं, वह एक विचारधारा है। धर्मनिरपेक्षता की। ठीक वैसे ही जैसे मोदी एक आइकन हैं, मगर उनकी पृष्ठभूमि को ताकत हिंदूवाद की विचारधारा से मिलती है। हिंदूवाद जिंदा रहेगा, और भी बढ़ सकता है, मगर साथ ही धर्मनिरपेक्षता भी सदा जिंदा रहेगी। और सच तो ये है कि देश का आम आदमी लिबरल है। देश में अस्सी फीसदी हिंदुओं के बावजूद हिंदूवाद की झंडाबरदार भाजपा को अपेक्षित कामयाबी इस कारण नहीं मिल पाती, चूंकि हिंदुओं का एक बड़ा तबका धर्मनिरपेक्षता में यकीन रखता है। इसके साथ ही हिंदू जातिवाद व क्षेत्रवाद में भी बंटा हुआ है। पाकिस्तान के प्रति सहज नफरत के चलते उपजाया गया तथाकथित राष्ट्रवाद उसे प्रभावित तो करता है, नतीजतन भाजपा को 303 सीटें मिल जाती हैं, मगर फिर भी वह धार्मिक रूप से कट्टर नहीं है। कभी उफनता भी है तो फिर शांत भी हो जाता है, जैसे पानी को कितना भी गरम किया जाए, सामान्य होते ही शीतल हो जाता है। अकेली इसी फितरत की वजह से उग्र हिंदूवाद को लंबे समय तक जिंदा रखना आसान नहीं है। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता सदा कायम रहने वाली है। भले ही कांग्रेस कमजोर हो जाए, मगर विचारधारा के नाम पर कांग्रेस का वजूद बना रहेगा। अगर कांग्रेस किसी दिन खत्म होने की कल्पना कर भी ली जाए, तब भी धर्मनिरपेक्षता किसी और नाम से जिंदा रहेगी, उसे खत्म करने की किसी में ताकत नहीं है।
-तेजवानी गिरधर
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