आशंका संकट को न्यौता देती है?

हाल ही बेहद जीवट वाली पत्रकार श्रीमती राशिका महर्षि से चर्चा के दौरान एक विषय निकल कर आया। वो ये कि आदमी को आशंका में नहीं जीना चाहिए। आशंका में जीने से हम जिस भी बात की आशंका कर रहे होते हैं, वह घटित हो सकती है। इसके विपरीत यदि हम अपरिहार्य आशंकित स्थिति में भी यह विचार करें कि सब कुछ ठीक होगा तो ठीक होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। असल में यह उनके अनुभव का निष्कर्ष था। कितना सही, कितना गलत, पता नहीं।
कुछ इसी किस्म की बात बहुत ऊर्जावान पत्रकार श्री विजय मौर्य से चर्चा के दरम्यान आई। उन्होंने एक अलग किस्म के दर्शन की चर्चा की। वह यह कि यदि हम भविष्य में आने वाली विपत्ति के लिए कुछ धन जुटा कर रखते हैं तो विपत्ति आती ही है। उनका कहना था कि यदि हम किसी संभावित या अकल्पनीय विपत्ति के निमित्त धन संग्रहित करते हैं तो वह धन विपत्ति को न्यौता देता है और उसी में खर्च हो जाता है। इसलिए संकट के लिए धन इकट्ठा न किया करें। पहले से उसका इंतजाम न करें। जब संकट आएगा तो देखा जाएगा। ईश्वर अपने आप कोई न कोई रास्ता निकालेगा। हालांकि धरातल का सच यही है कि हम कुछ धन भविष्य के लिए इक_ा करते ही हैं, और वह भविष्य में काम आता भी है। यह व्यवहारिक बात है। मगर श्री मौर्य का अनुभव इससे भिन्न है।
इन दोनों बातों में एक तथ्य कॉमन है। जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही हो जाता है। इसका एक उदाहरण मेरे ख्याल में आता है। बचपन में कभी एक-दो बार सब्जी में बाल निकला था, तो मेरे जेहन में यह बात बैठ गई कि मेरी सब्जी में बाल आएगा ही। जब भी खाना खाने बैठता तो सबसे पहले यह देखता कि सब्जी में बाल तो नहीं है। और दिलचस्प बात है कि बाल आता ही था। मैने इस का कारण मेरी माताश्री से पूछा तो वे यही बोलीं कि तुम ऐसा सोचते ही क्यों हो? अचानक बाल आ जाए तो कोई बात नहीं, मगर यदि तुम पहले से आशंका करोगे कि बाल आएगा तो वह आ ही जाता है। वह कहां से आता है, पता नहीं? मैने माताश्री की बात मान कर बाल आने की आशंका करना बंद कर दिया और आश्चर्य कि वाकई बाल आना बंद हो गया। इसका रहस्य मुझे आज तक समझ में नहीं आया। हाल ही जब श्रीमती महर्षि से चर्चा हुई तो मुझे यह पुराना वाक्या याद आ गया।
श्रीमती महर्षि व श्री मौर्य से हुई चर्चाओं से मुझे यकायक लॉ ऑफ अट्रैक्शन का ख्याल आ गया। उसके अनुसार हम जो कुछ बनना चाहते हैं, जो कुछ होना चाहते हैं, उसे पूरा करने के लिए पूरी कायनात जुट जाती है। कदाचित यही सिद्धांत आशंका व विपत्ति की कल्पना पर भी लागू होता हो। यदि आपका भी इस किस्म को कोई अनुभव हो तो जरूर शेयर कीजिएगा।
प्रसंगवश ओशो की किसी पुस्तक में पढ़ी एक बात भी आपसे साझा कर लूं। वे कहते हैं कि यदि साइकिल चलाते समय हम ये विचार करेंगे कि कहीं रास्ते में पड़े पत्थर से न टकरा जाएं तो हम उससे टकरा ही जाएंगे, भले ही वह बीच सड़क पर न हो कर किनारे पर पड़ा हो। उनका कहना था कि जैसे ही हम पत्थर को ख्याल में रखते हैं तो हमारा ध्यान उसी पर केन्द्रित हो जाता है और न चाहते हुए भी हम पत्थर की ओर मुड़ जाते हैं।
आखिर में एक विनोदपूर्ण बात से चर्चा को पूरा करता हूं। आपने देखा होगा कि अमूमन जिस भी स्थान पर लिखा होता है कि यहां लघुशंका करना मना है, वहीं पर लोग लघुशंका करते हैं। पता नहीं कि स्लोगन पहले लिखा गया या लोगों ने उस स्थान पर लघुशंका करना शुरू किया, उसके बाद लिखा गया, मगर आम तौर पर पाते यही हैं कि जहां लिखा होता है, वहीं अधिक मात्रा में पेशाब किया हुआ होता है। कहीं पर इस बारे में चर्चा हुई तो किसी ने कहा कि होता ये है कि लघुशंका करने की इच्छा नहीं भी हो, तब भी जैसे ही मार्ग से गुजरते कोई लघुशंका न करने का स्लोगन पढ़ता है तो उसे यकायक पेशाब आ जाता है, और वह उस स्थान का उपयोग कर लेता है। है न रोचक बात। यानि कि जैसा विचार, वैसा आचार। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। फिलहाल इतना ही। राम राम सा।

-तेजवानी गिरधर
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