दर्पण में दिखाई देने वाले प्रतिबिंब का वजूद क्या है?

क्या आपने कभी सोचा है कि आइने अर्थात दर्पण में दिखाई देने वाले प्रतिबिंब का वजूद क्या है? वह आखिर है क्या? जब तक हम दर्पण के सामने खड़े रहते हैं, तब तक वह दिखाई देता है और हटते ही वह भी हट जाता है। तो जो दिखाई दे रहा था, वह क्या था? हटते ही वह कहां खो जाता है? यह सही है कि उसका अपने आप में कोई वजूद नहीं, मगर वह कुछ तो है। वस्तुत: प्रतिबिंब के वजूद में प्रकाश का ही महत्व है। जैसे ही हमारे चेहरे पर प्रकाश पड़ता है, तो आइने में उसका प्रतिबिंब बनता है और जैसे ही प्रकाश हटता है व अंधेरा होता है तो वह भी दिखाई देना बंद हो जाता है। विज्ञान की भाषा में यह रिफ्लेक्शन अर्थात किरणों परावर्तन है। हमारे चेहरे पर पडऩे वाली किरणें चमकीली सतह से रिफ्लेक्ट हो कर वापस लौटती हैं, और हमें अपना प्रतिबिंब दिखाई देता है। प्रतिबिंब क्या, हमारा बिंब भी किरणों के परावर्तन के कारण दिखाई देता है। प्रकाश का यही खेल छाया भी बनाता है। प्रकाश के सामने खड़े होने पर हमारे पीछे छाया दिखाई देती है। छाया यानि वह दृश्य जो कि प्रकाश की किरणें रुकने की वजह से बनती है। उसका अपने आप में कोई वजूद नहीं। हम हैं तो वह है, अन्यथा नहीं। हम सब को जानकारी है ही कि सिनेमा के पर्दे पर दिखाई देने वाले चित्र भी प्रकाश व अंधेरे का ही खेल हैं।
खैर, हम बात कर रहे थे प्रतिबिंब की। भले ही इसका स्वतंत्र वजूद नहीं, मगर इसका भी महत्व है। आपको जानकारी होगी कि ज्योतिषी व तांत्रिक बताते हैं कि तेल, विशेष रूप से सरसों के तेल में अपना प्रतिबिंब देख कर उस तेल को दान करने से शनि का प्रकोप कम होता है। जिन पर शनि की साढ़े साती का प्रभाव है, उनको ये उपाय बताया जाता है। अर्थात प्रतिबिंब अपने साथ हमारी कुछ ऊर्जा, जिसे नकारात्मक ऊर्जा कह सकते हैं, ले जाता है। प्रतिबिंब का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सामुद्रिक शास्त्र में बताया जाता है कि अगर पानी में हमारा प्रतिबिंब दिखाई देना बंद हो जाए तो जल्द ही मृत्यु हो जाती है। अर्थात मृत्यु से पहले प्रतिबिंब बनना बंद हो जाता है।
दर्पण में बनने वाले प्रतिबिंब का उपयोग वास्तु शास्त्रानुसार भी किया जाता है। वास्तु दोष समाप्त करने के लिए स्थान विशेष पर दर्पण लटकाया जाता है। चूंकि दर्पण सिर्फ सामने का प्रतिबिंब दिखाता है, पीछे का नहीं, इस कारण आपने देखा होगा कि कटिंग पीछे कैसी हुई है, उसे दिखाने के लिए ब्यूटीशियन आगे व पीछे दर्पण रख कर वह हमें प्रतिबिंब का भी प्रतिबिंब दिखाता है।
वस्तुत: प्रतिबिंब एक भ्रम है। चूंकि हमको तो पता होता है कि वह हमारा प्रतिबिंब है, इस कारण भ्रमित नहीं होते, मगर अक्सर चिडिय़ा भ्रमित हो जाती है। आपने देखा होगा कि आइने के सामने खड़ी हो कर चिडिय़ा दिखाई देने वाले प्रतिबिंब को चोंच मारती है, चूंकि उसे भ्रम हो जाता है कि सामने कोई और चिडिय़ा है।
हमारे यहां तो परंपरा है कि छोटे बच्चे को उसका चेहरा दर्पण में नहीं दिखाया जाता। मुंडन के बाद ही बच्चे को उसका चेहरा दर्पण में दिखाने की छूट होती है। इसकी वजह क्या है, यह खोज का विषय है। ऐसी भी परंपरा है कि दूल्हा जब तोरण मारने आता है तो उसे दुल्हन को सीधे नहीं दिखाया जाता। उनको एक दूसरे के दर्शन पहले दर्पण में कराए जाते हैं। इसका भी कारण जाना चाहिए।
आपने ऐसा सुना होगा कि ऐसे दर्पण को बनाया जा चुका है, जिसके सामने जाने पर वस्त्र ओझल हो जाते हैं और हम पूरे नग्न दिखाई देते हैं। यह कितना सच है, पता नहीं। कदाचित एक्स-रे जैसी कोई तकनीक होगी।
दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो आइने में अपना प्रतिबिंब नहीं देखते। उसके पीछे उनकी धारणा ये है कि प्रतिबिंब से हमें अपनी पहचान दिखाई देती है कि लोगों कैसे दिखाई देते हैं। यदि हमारे चेहरे प्रतिबिंब हम देख लेते हैं तो उससे हमारा अटैचमेंट हो जाता है। हमें आभास होता है कि हम कैसे दिखते हैं। वह मोक्ष प्राप्ति में बाधक बनता है। मोक्ष का अर्थ ही ये है कि अपनी आइडेंटिटि मिटाना। अहम को समाप्त करना।
आज हम बड़ी आसानी से दर्पण में अपना चेहरा देख पाते हैं, लेकिन जब इसका अविष्कार नहीं हुआ था, तब ठहरे हुए पानी में चेहरा देखा जाता था। ऐसा लगता है कि दर्पण की खोज का पहला बिंदु ही पानी में चेहरा दिखाई देना रहा होगा। जानकारी के अनुसार आज से तकरीबन 8 हजार साल पहले ओब्सीडियन नाम के एक पत्थर के ऊपर पोलिश करके शीशा बनाया गया था। यह पत्थर एक ज्वालामुखीय प्रदार्थ था, जो एक कांच की तरह होता था। बताया जाता है कि लगभग 6 हजार ईसा पूर्व के आसपास एनोटोलिया अर्थात तुर्की में लोग इस पत्थर का इस्तेमाल करते थे इसी प्रकार चार हजार साल पहले मेसोपोटामिया में पॉलिश किए गए तांबे का इस्तेमाल दर्पण के रूप में किया जाता था। बाद में मिस्र वासियों ने भी इसका उपयोग किया। करीब 2 हजार ईसा पूर्व से चीन और भारत में भी तांबा, कास्य और मिश्रित धातु के द्वारा शीशे का उत्पादन किया गया। बाद में चीन में चांदी और पारे को मिला कर धातु पर कोटिंग करके दर्पण बनाना शुरू किया। सोलहवीं सदी में वेनिस शीशे के उत्पादन करने का एक केंद्र बन गया। पहले आधुनिक शीशे का आविष्कार जर्मन केमिस्ट जस्टस वॉन लाईबिग ने किया। 1835 में जर्मन केमिस्ट जस्टस वॉन लाईबिग को चांदी और गिलास से निर्मित दर्पण का आविष्कारक माना जाता है।

-तेजवानी गिरधर
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