कोराना ईश्वर का ही एक रूप है!

कोरोना को साष्टांग प्रणाम।
हे भगवान, या खुदा, यह वायरस कितना शक्तिशाली है। इसने आपके सारे धर्म स्थलों, सभी उपासना स्थलों को बंद कर दिया है। लोग पूजा, आराधना, प्रार्थना, अरदास से वंचित हैं। मस्जिदों में सामूहिक नमाज से महरूम हैं। इसने दुनिया की सारी सत्ताओं को हिला कर रख दिया है। बड़ी से बड़ी साधन-संपन्न सभ्यताएं भी उसके आगे नतमस्तक हैं। लोग घरों में कैद रहने को मजबूर हैं। आम आदमी त्राहि-त्राहि माम करने के सिवाय कर ही क्या सकता है? इतना तो तय है कि वह कोई महाशक्ति है। सवाल उठता है कि क्या यह भगवान की सत्ता से भी अधिक ताकतवर है? प्रश्र उठना स्वाभाविक है कि क्या ईश्वर की सत्ता से अतिरिक्त भी कोई सत्ता है, जो उसे चुनौति दे रही है?
वस्तुत: सारी सकारात्मक शक्तियों के साथ नकारात्मक शक्तियां भी ईश्वर की संरचना, सृष्टि का ही अंग हैं। वे पृथक नहीं हैं। उनका अलग से कोई अस्तित्व नहीं है। वे कहीं और जगह से नहीं आतीं। इसी प्रकार राक्षस, आसुरी शक्तियां भी इसी सृष्टि में विद्यमान हैं, वे किसी अन्य ब्रह्माण्ड या गैलेक्सी से नहीं आतीं। ऐसे में यह मानना ही होगा कि कोराना महामारी को फैलाने वाला कोविड-19 भी ईश्वर की ही सत्ता का हिस्सा है। उसी का एक रूप है। उसी का एक पहलु है। उसी की इच्छा है, उसी का संकल्प है। कोरोना उसी परम सत्ता से वरदान हासिल कर तांडव कर रहा है, जिसके सामने देवता जा कर अपनी रक्षा की अर्जी लगाते हैं। वह ईश्वर की शक्ति को चैलेंज करने किसी अन्य ब्रह्मांड से नहीं आया है।
कहीं ये भगवान शिव का रुद्र तो नहीं?
ज्ञातव्य है कि सनातन संस्कृति में यह धारणा है कि भगवान ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं, भगवान विष्णु पालन करते हैं और भगवान शिव संहारकर्ता हैं। जरूरी नहीं कि अकेला यह मिथ ही सही हो कि पहले सृष्टि का निर्माण होता है और अंत में संहार। संहार के बाद फिर से सृष्टि उत्पन्न होती हो। गले में आसानी से उत्पन्न होने वाला मिथ ये है कि निर्माण व संहार साथ-साथ चलता रहता हो। तभी तो जन्म भी है और मृत्यु भी। इधर नए जन्म हो रहे हैं और उधर जन्म ले चुके लोगों का मृत्यु वरण कर रही है। प्रकृति अपने हिसाब से बैलेंस करती है। इस मिथ के हिसाब से तो यही प्रतीत होता है कि कोरोना संहारकर्ता भगवान शिव का ही एक रूप है। हो सकता है शिव का ही एक रुद्र हो। एक नया रुद्रावतार हो।
जीवन शैली में परिवर्तन करने की प्रेरणा
गीता का श्लोक है ना, यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवतिभारत:, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम्। क्या पता एक नए अभ्युत्थान का पुनरागमन हो। क्या यह किसी अभ्युत्थान से कम है कि कोरोना वायरस ने हमें साफ-सफाई से रहने को मजबूर कर दिया है, अनुशासित रहने की सीख दी है। जीवन शैली में परिवर्तन करने की प्रेरणा दी है। जितने काल तक के लिए भी यह अभ्युत्थान हुआ है, उसमें सृष्टि प्रदूषण से मुक्त हो रही है। मैली हो चुकी मां गंगा के बहते पानी में जमीन साफ नजर आने लगी है।
जहां तक माइथोलॉजी का सवाल है उसके अनुसार जीवन सृष्टि का मौलिक तत्व है, जीवन सत्य है। जीवन यदि आरंभिक सत्य है तो मृत्यु अंतिम। सृष्टि में जीवन विद्यमान है तो मृत्यु भी यहीं है। जरा बड़े स्पैक्ट्रम से देखें तो जिसे हम जीवन कह रहे हैं वह तो भ्रम है ही, मृत्यु भी भ्रम ही तो है। जीवन मृत्यु को प्राप्त हो रहा है तो मृत्यु से ही फिर जीवन उत्पन्न हो रहा है। प्रकृति के पास एक तराजू है। संतुलन बनाए रखना उसका धर्म है।
मूर्ति के वजूद पर भी खड़ा कर दिया सवाल
मौजूदा हालात में आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती की ख्याल आता है। वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे। एक चूहे के मूर्ति पर चढ़ कर प्रसाद खा जाने पर उन्हें लगा कि जब मूर्ति खुद अपनी ही रक्षा नहीं कर पा रही तो वह हमारी क्या रक्षा करेगी? आज देखने में यही आ रहा है कि जिन मूर्तियों के सामने हम नतमस्तक हो कर अपनी रक्षा की गुहार लगाते हैं, मनोकामना की पूर्ति की प्रार्थना करते हैं, वे हमारे द्वारा बनाए गए मंदिरों में बंद है। हम उनसे मिल तक नहीं पा रहे।
कहां गई साधु-संतों की शक्ति
विशेष रूप से हमारे देश में अनगिनत साधु-सन्यासी हैं। उनमें से कई शक्तिमान भी माने जाते हैं। कुछ एक कथित रूप से चमत्कार भी दिखा चुके हैं। ऐसे भी बाबा हैं, जिन्होंने अपने आप को भगवान के समकक्ष जाहिर किया है। तंत्र-मंत्र से उलटा-पुलटा करने वाले भी कम नहीं हैं। अनेक प्रकांड ज्योतिषी भी हैं, जो दुनियाभर के उपाय बताते हैं। आज वे सब कहां हैं? उनकी शक्तियां क्यों नाकाम हैं? क्या कोराना उनके भी पिताश्री हैं, जिन पर उनका जोर नहीं चलता?
सभी को बना दिया श्वेताम्बर
प्रकृति की कैसी विचित्र लीला है। अब तक अकेले जैन दर्शन का अनुसरण करने वाले श्वेताम्बर आचार्य, साधु, मुनि, साधक ही मुंह पर मोमती बांधते रहे हैं, आज कोरोना ने हर एक आदमी को मुंह पर मोमती बांध दी है। फर्क ये है कि वे सांस की उष्णता से अदृश्य जीवों को मृत्यु से बचाते हैं और हम अदृश्या कोरोना से अपनी मौत न हो जाए, इसलिए मोमती को बांधने को मजबूर हैं।
एक अर्थ में इसने कुछ को दिगम्बर, मेरा मतलब निरवस्त्र भी किया है कि उनमें समाज सेवा का जज्बा कितना सच्चा है, कि उनकी प्रषासनिक क्षमता कितनी कुषल है, कि ताकत हासिल हो जाए तो आदमी कितना बौरा जाता है, कि समय खराब हो तो कैसे दुम दबाता है, कि कालाबाजारिये कैसे मौके का फायदा उठा कर लूट मचाते हैं, कि कुछ लोग संकट काल में भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे, कि इस संकट काल में भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे, कि मौत सामने खडी है, मगर धर्म के नाम पर बांटने की आदत नहीं छूट रही। इसने हमारी उस मनोदषा को भी बेपर्दा किया गया है कि हमारे हित में किए गए उपायों को भी कैद समझते हैं।
जान है तो जहान है, जान ईश्वर से भी अधिक प्यारी
खैर, कोरोना महामारी के इस दौर में यह मत भी उभर कर आया है कि बेशक ईश्वर की हम उपासना इसलिए करते हैं क्योंकि वह हम से अधिक शक्तिमान है, सर्व शक्तिमान है, उससे हमें कुछ चाहिए, मगर उससे भी अधिक हमें अपनी जान प्यारी है। यह ठीक है कि हम अपने घरों में बनाए गए मंदिरों में उसकी आराधना कर रहे हैं, मगर अपनी जान बचाने के लिए सार्वजनिक मंदिर की उपासना तक को भी छोडऩे को तैयार हैं। कहते हैं न कि जान है तो जहान है। अर्थात इस दुनिया का मूल्य तभी है, जब कि हमारी जान महफूज रहे। भगवान का महत्व भी तभी तक है, जब तक कि हम जीवित हैं, मरने के बाद किसने देखा कि भगवान है भी या नहीं। यदि जान ही सुरक्षित नहीं तो जहान बेकार है। और इसी जहान में कोरोना नामक दैत्य, दानव अथवा भगवान शिव के रुद्र ने अवतार लिया है। उसे दंडवत प्रणाम।

-तेजवानी गिरधर
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