क्या यूट्यूब न्यूज चैनल वाले पत्रकार फर्जी हैं? भाग एक

इन दिनों फर्जी पत्रकारों को लेकर बड़ी चर्चा है। पिछले आलेख में फर्जी पत्रकारिता की पराकाष्ठा पर प्रकाश डाला था, अब इसी मसले को अन्य कोणों से जानने की कोशिश करते हैं। इस आलेख को लिखने के बाद लगा कि विषय को ठीक तरह से समझने के लिए यह बहुत विस्तार पा गया है, लिहाजा इसके दो भाग कर दिए गए हैं।
यूं तो यूट्यूब न्यूज चैनल चलाने वालों के फर्जी होने की चर्चा कई बार होती रही है, मगर लॉक डाउन के दौरान इसने इस कारण जोर पकड़ा, क्योंकि सख्ती बहुत ज्यादा थी और पत्रकारों को बाहर निकलने की छूट थी। उन पत्रकारों में ऐसे भी शामिल हो गए थे, जिनके कंधों पर केमरा और हाथों में मोबाइल था तथा वे अपने आपको किसी यूट्यूब चैनल का पत्रकार बताते थे। कुछ शिकायतें भी आईं। समाचार पत्रों के रिपोर्टस व केमरा पर्सन्स को परेशानी थी कि किसी का इंटरव्यू लेने के दौरान चैनलों के वीडियो ग्राफर्स आगे आ कर खड़े हो जाते और उन्हें पीछे खड़ा होना पड़ता। ऐसे में कुछ तो कुछ पत्रकार संगठनों व वरिष्ठ पत्रकारों ने सरकार का इस ओर ध्यान आकर्षित किया और कुछ शासन-प्रशासन ने भी स्वत: संज्ञान लिया। इसी के चलते पुलिस ने उनका वेरिफिकेशन आरंभ कर दिया।
प्रशासन का कहना है कि यूट्यूब पर न्यूज चैनल चलाने वालों को पत्रकार नहीं माना जाएगा। इसका आधार ये है कि यूट्यूब पर न्यूज चलाने वालों का देश की किसी भी सरकारी एजेंसी में रजिस्ट्रेशन नहीं होता। अत: राज्य सरकार से अधिस्वीकृत पत्रकार व किसी रजिस्टर्ड समाचार पत्र व सेटेलाइट न्यूज चैनल में पत्रकार के रूप में कार्य करने वाले ही सरकारी कार्यालयों व किसी घटनाक्रम का कवरेज कर सकेंगे। किसे पत्रकार माना जाए और किसे नहीं, इस लिहाज से प्रशासन का यह तर्क बिलकुल ठीक है, क्योंकि वह उसे ही पत्रकार मानेगा, जिस पर किसी न किसी रूप में सरकार का नियंत्रण है।
अब मसले को ठीक से समझते हैं। यह सर्वविदित है कि देश में समाचार पत्रों के पंजीयन के लिए रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज पेपर ऑफ इंडिया नामक विभाग है। वहां पंजीकृत अखबार को ही डीएवीपी के जरिए विज्ञापन का लाभ मिलता है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें अधिस्वीकरण के लाभ सहित अन्य सुविधाएं उस पंजीयन को आधार बना कर देती हैं। लगे हाथ एक बारीक तथ्य पर भी नजर डाल लेते हैं। आरएनआई से पंजीयन करवाए बिना भी अखबार निकाला जा सकता है, बस एक तो उसी शीर्षक का पंजीयन नहीं होना चाहिए, दूसरा यदि कभी किसी ने वही शीर्षक रजिस्टर्ड करवा लिया तो आपको उस शीर्षक के नाम वाला अखबार बंद करना पड़ेगा। अजमेर में एक ऐसा मामला पाया गया, जिसमें किसी ने बिना रजिस्ट्रेशन के अखबार शुरू कर दिया। कोई एक साल वह चलता रहा, जब उसे पता लगा कि उसे किसी भी तरह की सरकारी सुविधाएं नहीं मिलेंगी, तब जा कर उसने उस शीर्षक को रजिस्र्टड करवाया। वस्तुत: प्रिंटिग मटीरियल के बारे में नियम है उसे सिटी मजिस्ट्रेट के यहां रजिस्टर्ड प्रिंटिग प्रेस में छपवाना होता है तथा बाकायदा प्रिंट लाइन में प्रिंटिंग प्रेस का नाम देना होता है। चुनाव के दौरान व अन्य मौकों पर जितने भी पर्चे बांटे जाते हैं, वे इसी नियम के तहत छापे जाते हैं। कई संस्थाओं के मुखपत्र भी इसी नियम के तहत प्रकाशित होते हैं, मगर उन्हें डाक रजिस्ट्रेशन के तहत मिलने वाली रियायत नहीं मिलती। मुझे याद है कि किसी जमाने में पत्र मित्रता क्लब हुआ करते थे, उनके मुखपत्र भी इसी प्रकार छपा करते थे।
रहा सवाल इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का तो सेटेलाइट न्यूज चैनल का बाकायदा रजिस्ट्रेशन होता है और इसके लिए वे सरकार से स्पेस खरीदते हैं, इस कारण उन पर भी सरकार का नियंत्रण होता है। लोकल केबल नेटवर्क पर भी न्यूज चैनल चलते हैं, उनका फौरी रजिस्ट्रेशन डाक विभाग में होता है। इन पर भी प्रशासन का नियंत्रण होता है। आपको जानकारी में होगा कि कई बार, आमतौर पर चुनाव के वक्त प्रशासन इस बारे में निर्देश जारी करता रहता है कि उन पर आपत्तिजनक समाचार नहीं चलाए जा सकते। बाकायदा सूचना व जनसंपर्क विभाग को उन पर निगरानी की जिम्मेदारी दी जाती है। ऐसा भी हुआ है कि चुनाव से संबंधित समाचार या विज्ञापन जारी करने से पहले उसे इस विभाग को दिखाना होता है।
यहां तक तो ठीक है। अब मुद्दा आता है सोशल मीडिया पर चलने वाले न्यूज पोर्टल व न्यूज चैनल्स का। इनका डोमेन रजिस्ट्रेशन इंटरनेट पर अंतरराष्ट्रीय एजेंसीज करती हैं। ब्लॉग्स का पंजीयन भी वहीं होता है। मुद्दा ये है कि यूटï्यूब पर न्यूज सहित किसी भी प्रकार के चैनल के पंजीयन पर भारत सरकार का सीधा कोई नियंत्रण नहीं है। हालांकि इस दिशा में सरकार ने एक्सरसाइज शुरू कर दी है, मगर फिलवक्त ब्लॉग, वेब साइट व यूट्यूब न्यूज चैनल के पंजीयन में उसका कोई दखल नहीं है। यानि कि वे सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं। हालांकि सरकार चाहे तो अंकुश लगा भी सकती है। जैसे चाइनीज ऐप्स पर रोक लगाई है, वैसी ही पाबंदी लागू कर भारत के चैनल्स को बेन कर सकती है। वह यूट्यूब संचालकों को भी पाबंद कर सकती है कि सिर्फ उन्हीं को चैनल चलाने के लिए अधिकृत करे, जिसने सरकार से अनुमति ले रखी हो, मगर अभी तक इस बारे में कोई रेगूलेटरी सिस्टम डॅवलप नहीं हुआ है। यही वजह है कि बिना उसकी अनुमति के हजारों यूट्यूब न्यूज चैनल चल रहे हैं। केवल न्यूज की बात छोडिय़े, सच तो ये है कि न्यूज कंटेंट वाले अनेकानेक चेनल भी धड़ल्ले से प्रसारित होते हैं, जिन पर घोर आपत्तिजनक सामग्री आती रहती है। अभी एक न्यूज एंकर की ख्वाजा साहब के बारे में मात्र एक टिप्पणी से कितना बवाल हुआ। हकीकत ये है कि ख्वाजा साहब सहित न जाने कितनी की बड़ी शख्सियतों के बारे में अंट-शंट व अप्रमाणित सामग्री बिखरी पड़ी है।
दरअसल इंटरनेट इतना बड़ा खुला मैदान है कि आज आदमी भी पत्रकार जैसा हो गया है। किसी अखबार में खबर छपे न छपे, वह वीडियो बना कर, फोटो खींच कर फेसबुक व वाट्स ऐप पर उसे जारी कर देता है। और मजे की बात ये है कि उसका विस्तार अखबारों की तुलना कहीं अधिक है। आजकल कई विज्ञप्तिबाज इसी पैटर्न पर चल रहे हैं। अखबार में फिर भी खबर कट-पिट जाती है, फोटो नहीं लग पाती, लेकिन सोशल मीडिया पर खबर जस की तस जाती है और फोटो भी चाहे जितने लगाए जा सकते हैं। ऐसे भी हैं, जिन्होंने बाकायदा ब्लॉग नहीं बना रखा, मगर अपना मन्वव्य ब्लॉग की भांति सोशल नेटवर्किंग पर जारी कर रहे हैं। सोशल मीडिया इतना प्रभावशाली है कि कई अखबार वाले पूरा का पूरा अखबार छपने के बाद इस पर चला रहे हैं। कई पत्रकार बड़े अखबार में खबर छप जाने के बाद भी उसकी फोटो बना कर इस नए मीडिया का लाभ उठा रहे हैं, ताकि अधिकाधिक लोग उसे पढ़ें। यह बदले हुए वक्त का मिजाज है, इसमें किसी का कोई दोष नहीं। अब तो ऐसा लगने लगा है कि उन पर कोई काबू नहीं पाया जा सकता। हालांकि वहां भी आपत्ति किए जाने पर उन पर रोक लगाई जाती है। या तो फेसबुक व यूट्यूब खुद ऐसी सामग्री हटा देता है अथवा आपत्तिजनक सामग्री डिलीट करने के निर्देश जारी करता है। कॉपीराइट संबंधी मामलों में भी उनका कंट्रोल होता है। क्रमश:

-तेजवानी गिरधर
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