पिछले कुछ समय से मेरे मित्र यह सवाल करने लगे हैं कि क्या बाबा जी बन गए हो। क्या घर परिवार छोड रहे हो। क्या संन्यास ले लिया है। ये कोई उम्र है। अपने आप को संभालो। असल में उनके ये कटाक्ष या ताने मेरे विचारों को यूट्यूब पर साझा करने को लेकर हैं। अध्यात्म अथवा जीवन के जरूरी पहलुओं जिन्हें कि दुनिया गैर जरूरी समझती है, पर चर्चा करने से लोगों को लगता है कि मेरा दिमाग सरक गया है। दिमाग के पेच ढीले हो गए दिखते हैं। वस्तुतः उनका कोई दोश नहीं है। अमूमन हम देखते हैं कि जो भी धार्मिक या आध्यात्मिक विशयों में तनिक रुचि लेता है तो वह संसार से विमुख होने लगता है। इसीलिए यह धारणा बन गई है कि आदमी को धार्मिक बातें बुढापे में करनी चाहिए, जब वह संसार के किसी काम का नहीं होता। मुझे अचरज होता है इस मान्यता पर। हमने कैसी जीवन षैली बना रखा है, कैसा जीवन दर्षन अपना लिया है। संसार और अध्यात्म को भिन्न छोरों पर बांध रखा है। दोनों को एक दूसरे का विरोधी बना रखा है। सवाल ये है कि ये दोनों एक साथ क्यों कर नहीं हो सकते। उसमें दिक्कत क्या है। मेरा ख्याल है कि अगर संसार व अध्यात्म साथ हो जाएं तो जीवन में ऐसे फूल खिल सकते हैं जिनकी हमने कल्पना तक नहीं की है।
इस सिलसिले में एक विचार आपसे पूर्व में भी साझा कर चुका हूं। संसार व अध्यात्म चूंकि एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, जो कि असल में विरोधी हैं नहीं, उनके बीच तालमेल हमें असंभव लगता है। यह सही है कि उनके बीच संतुलन कठिन है, मगर नामुममिन नहीं।
भीतर के होश व बाहर की अनिवार्यता के बीच संतुलन बनाना वाकई मुष्किल है। आत्मा का सत्य तो आत्यंतिक है ही, भौतिक जगत का सत्य भी नकारा नहीं जा सकता, भले ही वह नश्वर है। प्रतिपल भस्म होता है, मगर जब गुजर रहा होता है, तब तो तात्कालिक सत्य होता है। बेशक सतत भाव स्थिर चित्त का है, लेकिन संसार में रत रहना शारीरिक मौजूदगी की अनिवार्य स्थिति है। उसके अपने सुख-दुख हैं, मगर संतोष इस बात से होता है कि अवतार भी तो सशरीर होने के कारण सांसारिक स्थितियों को भोगते हैं, भले ही इसे उनकी लीला कहा जाए। खैर, असलियत का पता है, मगर नाटक तो करना ही पड़ता है। इस संदर्भ में यह सूत्र मुझे प्रीतिकर लगता हैः-
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते।।
बुद्धिमान मनुष्य विद्या एवं अविद्या, दोनों को ही एक साथ जानता है। वह अविद्या के सहारे मृत्युमय इस संसार को पार करता है, अर्थात् उसका उपयोग करते हुए सार्थक ऐहिक जीवन जीता है, तभी भौतिक कष्टों तथा व्यवधानों से मुक्त होकर वह विद्या पर ध्यान केंद्रित करते हुए देहावसान के उपरांत सच्चिदानंद परमात्मा के रूप में प्राप्य अमृतत्वपूर्ण परलोक का भागीदार बनता है।