जैन श्रद्धालुओं ने तप त्याग से मनाया संवत्सरी महापर्व
संवत्सरी महापर्व पर उमड़ा श्रद्धा का सैलाब
षिर्डी -। हृदय जब विनम्र बनता है तब क्षमा मांग सकते है, हृदय जब विशाल बनता है तब व्यक्ति दूसरों को क्षमा दे सकता है और हृदय जब विमल बनता है तब क्षमा रखी जा सकती है। क्षमा दो टूटे हुए दिलों को जोडने का कार्य करती है। क्षमा वीरों का भूषण है कायरों का नहीं। उपरोक्त विचार श्रमण संघीय सलाहकार दिनेश मुनि ने शुक्रवार को श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ षिर्डी की ओर से जैन स्थानक में पर्युषण के आठवें दिन संवत्सरी पर धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किये।
सलाहकार दिनेश मुनि ने कहा कि जब मनुष्य सहज भाव से अपनी भूलों पर पश्चाताप करता हुआ दूसरों से क्षमा मांगता है, प्रसन्नता से मुस्कुराने लगता है वहीं प्रसन्नता उसके जीवन में खुशी का संचार करती है। संवत्सरी सिर्फ एक परम्परा या पर्व नहीं है बल्कि आत्म चिंतन का दिन भी है। आज का दिन श्रावक-श्राविकाओं में स्वयं एक प्रेरणा जगाता है कि हम स्वयं को आराध्य के प्रति समर्पित कर दें। संवत्सरी को केवल परम्परा के रूप मे ही न मनाएं बल्कि प्रायोगिक रूप से जीवन में उतारें। उन्होंने कहा कि आज का दिन अद्भुत है। देश-विदेश में रहने वाले जैन श्रावक भी संवत्सरी के प्रति विशेष आदर रखते हैं।
सलाहकार दिनेष मुनि ने श्रावक-श्राविकाओं को मंगल पाथेय देते हुए कहा कि हम जिस रोज अपनी आत्मा के निकट रहते हैं, तब पर्युषण मनाया जाता हैं। पयुर्षण के आठ दिन एक साधना हैं, यज्ञ है। संवत्सर यानि 12 महीनों का एक दिन संवत्सरी यह प्रेरणा देता हैं कि 12 महीनों में जो भी गलतियां की हैं, जो भी परिवर्तन हुए हैं उन पर आत्म चिंतन करे, आत्मावलोकन कर उन्हें दूर करें।
उन्होंने कहा कि संवत्सरी की मूल आत्मा है क्षमा। जो न तो क्षमा करता है न क्षमा मांगता है वह मनुष्य नहीं, पर जो दो कदम आगे बढ़कर सबसे क्षमा मांग लेता है और गलती करने वालों को क्षमा कर देता है वह मनुष्य महान बन जाता है। आज का दिवस आपसी प्रेम व सद्भाव का दिन है। उन्होंने कहा कि क्षमा देना और क्षमा लेना यह मानव का सनातन धर्म है। अहिंसा से ही प्रेम व मैत्री की भावना का जन्म होता है। जीवन मे आलोचना का महत्व बताते हुए कहा कि आलोचना दूसरों की नहीं स्वयं की करनी चाहिए।
डॉ. द्वीपेन्द्र मुनि अंतगढ सूत्र का वाचन का समापन करते हुए कहा कि प्रत्येक धर्म में मानव को क्षमा अपनाने पर बल दिया है। इस अवसर पर तीर्थंकर महावीर से लेकर वर्तमान तक के महापुरुषों के जीवन वृत पर प्रकाश डाला और कहा कि सारी सृष्टि को मैत्री भाव से देखना सारे जीव मुझसे मित्रता रखें, ये जागृत मैत्री का अहिंसा सिद्धांत है। धार्मिक होने का अथर््ा समस्त जीवों के प्रति अहिंसा करुणा प्रेम का भाव होना है। मैत्री और क्षमा पर कहा कि आज के दिन राग द्वेष की गांठ खोलने से मैत्री की दुनिया महक उठती है, दूसरों की गलतियां माफ करने वाला देव समान बन सकता है। उन्होंने कहा कि जीव का आभूषण रूप, रूप का आभूषण गुण, गुण का आभूषण ज्ञान ज्ञान का आभूषण क्षमा कहा गया है।
क्षमा के महत्व को बताते हुए डॉ. पुष्पेन्द्र मुनि ने कहा कि हमें सबसे पहले स्वआत्मा से, उसके बाद परमात्मा से, फिर सर्वआत्मों से क्षमायाचना करनी चाहिए। जो स्वयं क्षमा मांगने में जितनी नम्रता और दूसरों की भूलों को नजर अंदाज करने में जितनी उदारता बताता है वही मानव महान होता है। क्षमा ज्ञान का गुंजन है जो आत्मशुद्धि के द्वारा मुक्ति दिलाने में सहायक है। उन्होंने इस पर्व को घमंड मिटाने वाला बताया। हर संयमी और हर संगठन के लिए यह आवश्यक है कि सहनशीलता का गुण रहेगा तभी सफलता मिलेगी।
तपस्या की रही बहार
54 तेले व आठ अठाई संपन्न हुई
संवत्सरी महापर्व के अवसर पर आठ उपवास के नियम प्रवचन सभा में संजयकुमार लोढा, मनोज कुमार लोढा, मानसी बाफना, पद्मबाई लोढा, पुष्पा लोढा व अकिंता सतरा ने आज आठ उपवास व स्वाति लोढा ने सात उपावास व सुश्री शामल धनेष लोढा ने पांच उपवास के नियम ग्रहण किये। इसी क्रम में 11 वर्षीय क्रमषः खुषी पारख, खुषी ओस्तवाल, सिद्धी लोढा ने तीन उपवास के नियम लिये और सलौनी ओस्तवाल ने भी तेलातप का नियम लिया। उल्लेखनीय है कि अभी तक 54 तेले व आठ अठाई संपन्न हुई है। तेले तप, अठाई तप व उससे अधिक विशिष्ट तपस्य्ाा करने वाले श्रावक-श्राविकाओं ने सर्वप्रथम ‘नियम’ ग्रहण किए, उसके पश्चात् श्रीसंघ द्वारा चांदी के सिक्कों द्वारा तपस्वीयों का स्वागत किया गया। आलोचना का वाचन पुष्पेन्द्र मुनि द्वारा किया गया।
शनिवार को सामूहिक पारणे व करेगें क्षमायाचना
संवत्सरी महापर्व के अवसर पर श्रावक – श्राविकाओं ने पूर्ण निराहार रहकर उपवास किया। शनिवार सुबह सामूहिक पारणा होगें तथा वर्ष भर में जाने अनजाने में हुई गलतियों के लिए क्षमायाचना भी की जाएगी।