गांधीजी को शराबी साधक पर ऐतराज नहीं था

किसी भी सिक्के के दो पहलु होते हैं। इसी प्रकार हर मसले के दो दृष्टिकोण होते हैं। सकारात्मक व नकारात्मक। यह हम पर निर्भर करता है कि हम किसे चुनते हैं। जितने भी संत हैं, जितने मोटिवेशनल स्पीकर्स हैं, वे जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण अर्थात पॉजिटिव एटिट्यूड अपनाने की सलाह देते हैं। इस सिलसिले में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन से जुड़ा एक प्रसंग ख्याल में आता है।
एक बार गांधीजी के कुछ अनुयाइयों ने गांधीजी से शिकायत की कि आश्रम का एक साधक शराबी है। वह आश्रम में भी नियमित आता है और रोज शाम को शराब की दुकान पर भी खड़ा दिखाई देता है। उन्होंने कहा कि हमारा साधक शराबी है, यह देख कर लोग क्या सोचेंगे? इससे हमारे आश्रम की बदनामी होगी कि गांधीजी के अनुयायी भी शराबी हैं। उन्होंने गांधीजी से आग्रह किया कि उस साधक को आश्रम में आने से रोका जाए। इस पर गांधीजी ने उत्तर दिया कि उस साधक को रोकने की कोई जरूरत नहीं है। उसे नियमित आने दिया जाए। आप ये क्यों सोचते हैं कि हमारा साधक शराबी है, ये क्यों नहीं सोचते कि एक शराबी हमारे यहां साधना करने आता है। शराबी होने के बावजूद अगर कोई साधक हमारे यहां नियमित आता है, इसका ये अर्थ है कि उसमें सुधरने की गुंजाइश है। यदि उसमें सुधरने की जरा भी ललक नहीं होती तो वह आश्रम में आता ही नहीं। शराबी होने के बावजूद उसकी रुचि सदाचार में है, इसी कारण आश्रम में आता है। यदि हम उसके प्रति मित्रवत व्यवहार करेंगे तो संभव है वह एक दिन शराब छोड़ दे। यदि उसे आश्रम में आने से रोक देंगे तो बात ही खत्म हो जाएगी और यदि उसके प्रति बुरा बर्ताव करेंगे, तो एक दिन वह आश्रम में आना बंद हो जाएगा। और सुधरने जो भी संभावना होगी, वह भी समाप्त हो जाएगी। इस पर शराबी साधक पर ऐतराज करने वाले साधक चुप हो गए। तभी तो कहा है कि नफरत बुराई से करें, बुरे आदमी से नहीं।
यह प्रसंग किसी गिलास के आधा भरा होने जैसा है। हम ये भी सोच सकते हैं कि गिलास आधा ही भरा हुआ है और सोच का एक आयाम ये भी है कि गिलास आधा खाली है। निष्कर्ष ये है कि हर मसले के दो पहलु होंगे ही। एक अच्छा और दूसरा बुरा। कोई संपूर्ण अच्छा नहीं हो सकता और कोई संपूर्ण बुरा नहीं हो सकता। अच्छे से अच्छे आदमी में भी बुराई मिल जाएगी और बुरे से बुरे इंसान में भी अच्छाई होती है। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारा फोकस किस पर है।
आपको ख्याल में होगा कि मैनेजमेंट गुरू सदैव अपने कर्मचारी या अधीनस्थ की अच्छाई की तारीफ करने की सलाह देते हैं। बेशक बुराई की ओर भी ध्यान आकर्षित करने को कहते हैं, मगर साथ ही सद्गुण की प्रशंसा भी करने पर जोर देते हैं। इससे अधीनस्थ का उत्साह बढ़ता है और सुधार की गुंजाइश बनती है।
यह हमारी मनोवृत्ति का दोष है कि हम अच्छाई की तुलना में बुराई को जल्द स्वीकार करते हैं। जैसे हम अगर किसी की बुराई करते हैं तो लोग उसे तुरंत सच मान लेते हैं, उस पर सहसा यकीन कर लेते हैं, जबकि अगर किसी की प्रशंसा करते हैं तो उसे यकायक मंजूर नहीं करते। यह सोचते हैं कि अमुक आदमी के अमुक आदमी से अच्छे संबंध होंगे, या फिर उससे उसका स्वार्थ सिद्ध हो रहा होगा, इसी कारण वह उसकी तारीफ कर रहा है। इसका एक उदाहरण ये भी है कि हर फिल्म एक अच्छा संदेश देती है। एक भी फिल्म बुरा संदेश देने के लिए नहीं बनती। लेकिन हम अच्छे संदेश को अंगीकार करने की बजाय फिल्म में दिखाई गई बुराइयों को तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। कैसा विरोधाभास है कि हम अच्छाई की तारीफ तो करते हैं, मगर बुराई को इसलिए अपना लेते हैं क्योंकि उससे हमारा स्वार्थ सिद्ध होता है।
हमारी सोच किस तरह का है यह इससे पता लगता है कि अगर कोई युवती किसी युवक के साथ जा रही है तो हम तुरंत यह अनुमान लगा लेते हैं कि वे प्रेमी-प्रमिका या पति-पत्नी ही होंगे। हम कभी ये नहीं सोचते कि वे भाई-बहिन भी तो हो सकते हैं। बहरहाल, समारात्मक दृष्टिकोण अपनाने के लिए गांधीजी से जुड़ा प्रसंग सटीक लगा, इसी कारण साझा करने की इच्छा हुई।

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