हम ज्यादा क्यों जीना चाहते हैं?

एक शब्द है जिजीविषा। इसका अर्थ होता है जीने की इच्छा। हर आदमी अधिक से अधिक जीना चाहता है। आखिर क्या है इसकी वजह?
इसके पीछे मोटे तौर पर ये इच्छाएं हो सकती हैं कि बेटे-बेटियां पढ़-लिख कर कमाने योग्य हो जाएं, उनकी शादी हो जाए, वंश वृद्धि हो, पोते-पोती देखें। और अगर पड़ पोते-पड़ पोतियां देख लें तो कहने ही क्या, उसे बहुत सौभाग्यशाली माना जाता है। सोने की सीढ़ी पर चढ़ा कर स्वर्ग भेजने तक का टोटका किया जाता है। मगर सूक्ष्म इच्छा यही है कि आदमी और अधिक, और अधिक जीना चाहता है। यह उसका मौलिक स्वभाव है, उसका कुछ नहीं किया जा सकता।
जाहिर है कि अगर कोई हमें अधिक जीने की दुआ देगा तो हम खुश होंगे। तभी तो चिरायु, चिरंजीवी, शतायु होने के आशीर्वाद दिए जाते हैं। शतायु होने का आशीर्वाद इस कारण तर्कसंगत माना जा सकता है कि मनुष्य की आयु सौ वर्ष मानी गई है। सौ वर्ष पूर्णता के साथ जीने के पश्चात मोक्ष की कामना के मकसद से सौ वर्षों को चार हिस्सों में बांटा गया। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व संन्यासाश्रम की व्यवस्था की गई ताकि मनुष्य काम, अर्थ, व धर्म के बाद मोक्ष को उपलब्ध हो जाए। लेकिन कम से कम इस काल में तो ऐसा है नहीं। आश्रम व्यवस्था को कोई नहीं मानता। अधिकतम औसत आयु पैंसठ से सत्तर वर्ष है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि अगर कुछ और साल जी भी लिया जाए तो क्या हो जाएगा? जीवन में इतनी रुचि क्यों? अरे, मरने पर शरीर के साथ सब कुछ छूटेगा ही, यहां तक कि संचित संस्कार व ज्ञान भी किसी के काम नहीं आएगा, वो भी साथ ही चला जाएगा।
सच तो ये है कि बुढ़ापे के साथ बीमारियां घेरने लगती हैं। पचास वर्ष के आसपास कोई न कोई बीमारी घेर लेती है। ब्लड प्रेशर व शुगर तो आम बात है। साठ साल का होने तक शरीर के अनेक अंग कमजोर पडऩे लगते हैं। दांत गिरते हैं, बहरापन आता है, कम दिखता है, घुटने जवाब देने लगते हैं। अगर बीमार न भी हों तो भी जरा अवस्था अपने आप में ही बड़ी कष्ठप्रद है। इसके अतिरिक्त जमाना ऐसा आ गया है, परिवार टूट कर छोटी इकाइयों में बंटने लगा है। बुजुर्गों की सेवा ही मुश्किल से होती है। बुजुर्गों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। वृद्धाश्रम उसी की देन हैं। मैने देखा है कि वृद्धाश्रमों में एकाकी जीवन जीने वाले लोग भी मरने की कामना नहीं करते। और अधिक जीना चाहते हैं। वहां भी जीने का रस तलाश ही लेते हैं। कई बार तो ये भी देखा गया है कि बुढ़ापे में भौतिक खाद्य पदार्थों की इच्छा और अधिक अधिक जागृत होने लगती है।
खैर, जहां तक मुझे समझ आया है, अधिक जीने की इच्छा के पीछे एक गहरा राज है। वो यह कि हमारा शरीर जिन पांच तत्त्वों से मिल कर बना है, उनका गठन व तानाबाना इतना मजबूत है कि हमें लगता ही नहीं कि हम मरेंगे, भले रोज लोगों को मरते हुए देखते रहें। कदाचित श्मशान में कुछ पल के लिए यह ख्याल आ भी जाए, मगर बाहर निकलते ही वे श्मशानिया वैराग्य तिरोहित हो जाता है। वस्तुतरू शरीर में आत्मा इतनी गहरी कैद है, इतनी गहरी गुंथी हुई है कि अंत्येष्टि के दौरान पूरा शरीर जल कर राख होने के बाद भी आखिर में आत्मा को इस जगत से मुक्त करने के लिए कपाल क्रिया करनी पड़ती है। इससे हम समझ सकते हैं कि आदमी की जिजीविषा कितनी गहरी है। उससे भी बड़ी बात ये कि अगर कोई व्यक्ति किसी चिंता, परेशानी या बीमारी की वजह से मरने की इच्छा भी करता है, तो भी मौत तभी आती है जब शरीर और अधिक साथ नहीं दे पाता। तभी आत्मा शरीर की कैद से मुक्त होती है।
प्रसंगवश एक तथ्य और जान लें। वो ये कि जन्म के पश्चात तीन साल तक आत्मा का शरीर के साथ गहरा अटैचमेंट नहीं होता। तीन साल का होने के बाद ही आत्मा का शरीर से गहरा जुड़ाव होता है। जो संन्यासी हैं, या जिन्होंने जीते जी मरने की कीमिया जान ली है, उन्हें भी शरीर से मुक्त माना जाता है। हिंदू संस्कृति में इसी कारण तीन सल तक बच्चे व संन्यासी का दाह संस्कार नहीं किए जाने की परंपरा रही। दाह संस्कार की जरूरत ही नहीं मानी गई। दफनाने से ही काम चल जाता है। निष्कर्ष यही कि आम तौर पर आत्मा का शरीर के साथ इतना गहरा संबंध होता है कि वह मरने की कल्पना तक नहीं करता।

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