उजालों के उत्सव

Ras Bihari Gaur (Coordinator)कश्मीर में हिंसा की आग को देखकर अगर आप कुछ बोलते हैं तो आप आतंक के समर्थक है, आतंकवादी है।आप गुजरात में चमड़ा उतारने वालो के चमड़ा उधेड़ने पर प्रतिक्रिया देते है तो आप धर्मद्रोही हैं,पापी है। उत्तरप्रेदेश के किसी राजनेता की भाषा पर चर्चा करते है तो प्रतिउत्तर में सामनेवाले की प्रतिभाषा का सहारा लेकबीर आपको राजनैतिक दुराग्रह का शिकार बताया जाता है।
यक़ीनन हम अपने संकुचित दायरे में कोई भी ऐसी सोच या घटना का प्रवेश ही नहीं चाहते जो हमे भीतर से झझोड़ने की कोशिश करती हो। हम किसी भी कीमत पर अपनी राजनैतिक या धार्मिक आस्था पर प्रहार बर्दाश्त नहीं करते। हम अपने या हमारी आस्थाओं के कृत्यों को तर्कों से काटते हुए ये तक भूल जाते हैं कि मनुष्यता के मूल में स्नेह,संवाद और सम्मान के क्या अर्थ हैं।
अपनी हिसंक प्रवृतियों का पोषण हम अपने भीतर के सच को मारकर करते हैं। इतिहास में अमुक प्रजाति ने ये किया उसका बदला उनके वंशजो से लेना है, सामाजिक न्याय की अवधारणा के तहत अमुख वर्ग को प्रताड़ित करने का हमे दैविक अधिकार है या पूर्व में राजनैतिक प्रतिस्पर्धीयों की कारगुजारियां हमारे नकारत्मक कारणों के लिए जायज हैं। सच तो ये है कि हमारा वर्तमान सच से सामना ही नहीं करना चाहता। वह निरंतर नए झूठ बुनकर एक ऐसी दुनियां गढ़ रहा है ,जहाँ मानवता से सम्बंधित सारे मूल्य सिरे से गायब हैं। एक विशेष किस्म के उन्माद से जनित राष्ट्र तो है,पर उसके अनिवार्य अवयव नहीं है। व्यवस्था के लिये समाज है, समाज के लिए कोई व्यवस्था नहीं है।संख्या बल से निर्मित लोकतंत्र है किंतु लोक और तंत्र दोनों की सुरक्षा में कोई बल नहीं है।
यक़ीनन, ये सब पहली बार नहीं है, ना ही सबसे भयावय है। पूर्व में भी नफरत के व्यापार धर्म के कंधो पर बैठकर फलते- फूलते रहे हैं। हिंसक मनोविज्ञान राजनीती को प्रभावित करता रहा है। निजी स्वार्थो से समाज और राष्ट्र दोनों आहात होते रहे हैं। किन्तु इन अंधेरों को अँधेरे कहने का साहस पहले लिखने पढ़ने वाली कलमों के पास हुआ करता था। अब अलबत्ता तो शब्दों के कुनबे में ये हिम्मत ही कम रह गई है और जिनमे हैं उन्हें बाकायदा सत्ता के संकेत पर लतियाने की होड़ सी लगी है। ऐसे मे सही बोलने की ताकत दुःसाहस की श्रेणी में आने लगी है। विचार और विवेक की चिंगारी से प्रज्वलित दिए इस अंधड़ में डरे-डरे से अपने अस्तित्व की रक्षा में पड़े हैं। या यूँ कहें की नफरत की हवाओं के लिए मौसम अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल है और उजालो के विरुद्ध अंधरे संघठित हो चले हैं।
ऐसे अंधेरों से लड़ने की आवाजें जब भी आई तो कविता या कला के गलियारों से ही आई। अब भी अगर हम उम्मीद करेंगे तो उन्ही गलियों की और देखना पड़ेगा। जो खुद को खुसरो, कबीर ,ग़ालिब ,दिनकर ,निराला का वंशज कहते हैं वे कम से कम एक बार उन्हें गुनकर देखे शायद हिम्मत लौट आये और हम उजालो के उत्सव बना सके।

रास बिहारी गौड़
www.rasbiharigaur.com

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