वस्तु-शास्त्र में दिशाओं का महत्व

Vastuवास्तु-शास्त्र का प्रचलन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। कुछ लोग इस पर अंध्-विश्वास की सीमा तक विश्वास करते हैं और अपने बने बनाए भवनों में तोड़-फोड़ कर लाखों का नुकसान कर बैठते हैं। दूसरे इसे बिल्कुल पोंगा पंथी मानते हैं। दोनों ही अवस्थाओं को प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। वास्तु-शास्त्र हो या ज्योतिष-शास्त्र, इसे अंधविश्वास या वहम नहीं बनाना चाहिए। आत्मविश्वास सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। पर यह निश्चित है कि दोनों ही शास्त्र मात्र ढकोसला नही हैं। दर्शन-शास्त्र की बात मानें तो प्रत्येक प्राणी या वस्तु की स्थिति देश (space) और काल (time) से आबद्ध है। वास्तव में हम ब्रह्माण्डीय प्राणी हैं। हमारे अस्तित्व का कण-कण और पल-पल अनादि, अपार और अनन्त वैश्विक सूक्ष्म डोरियों से बंधा हुआ है। पैन की जिस टिप से यह लेख लिखा जा रहा है उस धतु की उत्पत्ति पृथ्वी या सौर-मंडल में नहीं हुई, ब्रह्माण्ड के किसी कोने में हुई है। यही बात अन्य रासायनिक तत्वों की है जिससे हमारा शरीर बना है, इसलिए ज्योतिष-शास्त्र व वास्तु-शास्त्र को मात्र ढकोसला कहना सर्वथा अवैज्ञानिक व असंगत है।

वास्तु-शास्त्र की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जाती है- प्रथमत: वस्तु से संबंधित जो प्राणी के बाह्य जगत के घात-प्रतिघात (interaction) से संबंध् रखता है। भारतीय चिंतन परम्परा के आधर पर कोई भी वस्तु मात्र जड़ नहीं है, इसमें चेतन समाहित है अत: यह समीपस्थ चेतना के पुंज प्राणियों को प्रभावित करती है। मानव-जीवन अपने चारों ओर के वातावरण से प्रभावित होता है। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि प्राकृतिक संसाध्नों से उर्जा प्राप्त कर अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है। वास्तु शास्त्र व्यवस्थित ढंग से उसकी संगति बैठाता है। बाह्य जगत से सामंजस्य और समरसता बैठाने का काम वास्तु-शास्त्र करता है। कुछ लोग इसका संबंध-वास (dwelling place) से भी मानते हैं।

पहले कहा गया कि हम सब देश (space) से आबद्ध हैं। वह दस भागों में विभक्त है जिन्हें दिशाएं कहा गया है। अधिकतर लोग चार दिशाएं मानते हैं पर दिशाएं दस हैं। चार मुख्य दिशाएं पूर्व, उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण एवं उन चारों दिशाओं के कोने ईशान (पूर्वोत्तर), आग्नेय (दक्षिण-पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) तथा वायव्य (उत्तर-पश्चिम)। इसके अतिरिक्त दो दिशाएं और हैं- उधर्व व अध: (उपर व नीचे)1

मानव जीवन पर दिशाओं के प्रभाव को जानने से पहले हमें याद रखना होगा कि पृथ्वी एक बहुत बड़ा चुम्बकीय ग्रह है। इसके दो सिरे हैं : उत्तरी ध्रुव  व दक्षिणी ध्रुव । चुम्बक का लौह तत्व से आकर्षण सर्वविदित है। मानव शरीर का 66 प्रतिशत अंश तरल है जिसमें लौह तत्व की बहुलता है इसलिए मानव एक चलता फिरता चुम्बक है जिसकी संगति भौगोलिक चुम्बक से अवश्य बैठनी चाहिए। इसीलिए दक्षिण दिशा की ओर पैर करके सोना घातक माना गया है क्योंकि इससे भौगोलिक उत्तरी ध्रुव और मानवीय उत्तरी ध्रुव एक मुखी होने के नाते असंतुलन पैदा करता है क्योंकि समान चुम्बकीय ध्रुव विकर्षण कारक होते हैं। हमें सदा दक्षिण की ओर सिर करके सोना चाहिए जिससे भौगोलिक व मानवीय चुम्बकीय ध्रुवों में आकर्षण बैठ सके। व्यावहारिक वास्तु-शास्त्र का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त करने से पहले हमें दसों दिशाओं के बारे में कुछ मूलभूत बातें जानना आवश्यक है।

1. पूर्व-दिशा: यह प्रकाश, ज्ञान, चेतना का स्रोत है। भगवान सूर्य इस दिशा में उदित होकर सभी प्राणियों में स्फूर्ति व उर्जा का संचार करते हैं। इन्द्र इसके देवता हैं और सूर्य ग्रह। पूजा ध्यान, चिंतन तथा अन्य बौद्धिक कार्य पूर्वाभिमुख होकर करने से इनकी गुणवत्ता बढ़ जाती है। इस दिशा की ओर खुलने वाला भवन सर्वोत्तम माना गया है। प्रात:काल पूर्व दिशा से आने वाली हवा का घर में निर्वाध रूप से प्रवेश होना चाहिए ताकि सारा घर सकारात्मक उर्जा से आपूरित हो जाए।

2. आग्नेय: अग्नि इसके देवता हैं और शुक्र ग्रह। आग्नेय दिशा में जलाशय आदि (waterbody) नहीं होना चाहिए। इस दिशा में रसोई का होना बहुत शुभ है। आग्नेय दिशा में ऊंची भूमि धनदायक मानी गई है। इस दिशा की ओर मुंह करके गंभीर चिंतन कार्य नहीं करना चाहिए।

3. दक्षिण-दिशा: इसके देवता यम हैं और मंगल ग्रह। यह दिशा सबसे अशुभ मानी गई है परन्तु इस ओर सर कर सोना स्वास्थ्य-र्वध्क व शांतिदायक है। यदि इस ओर भूमि ऊंची हो तो वह सब कामनाएं संपूर्ण करती है और स्वास्थ्य र्वध्क होती है। भवन कभी भी दक्षिण की ओर नहीं खुलना चाहिए बल्कि इस दिशा में शयन-कक्ष होना उत्तम है।

4. दक्षिण-पश्चिम: निऋति नामक राक्षस इसका अधिष्ठता है और राहु-केतु इसके ग्रह हैं। यह दिशा भी कुछ शुभ नहीं है। पर गृह स्वामी और स्वामिनी का निवास स्थान इसी दिशा में होने से उनका अधिकार बढ़ता है। संभवत: यह इस बात का द्योतक है कि शासक की तरह गृहस्वामी को भी अवांछनीय और शरारती तत्वों पर नियंत्राण रखना चाहिए। इस दिशा में भी द्वार नहीं होना चाहिए तथा इस ओर जल-प्रवाह प्राणघातक, कलहकारी व क्षयकारक माना गया है। इस दिशा में शौचालय, भंडार-गृह होना उचित है।

5. पश्चिम दिशा: वरुण इसके देवता हैं और शनि ग्रह। यह सूर्यास्त की दिशा है। इसलिए पश्चिमाभिमुख होकर बैठना मन में अवसाद पैदा करता है। पश्चिम में भोजन करने का स्थान उत्तम है। सीढ़ियां, बगीचा, कुंआ आदि भी इस ओर हो सकता है। पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता घेर लेती है।

6. वायव्य दिशा : इस दिशा के देवता वायु हैं तथा चन्द्रमा ग्रह। यह दिशा चंचलता का प्रतीक है। इस दिशा की ओर मुख करके बैठने से मन में चंचलता आती है और एकाग्रता नष्ट होती है। जिस कन्या के विवाह में विलम्ब हो रहा हो, उसे इस दिशा में निवास करना चाहिए जिससे उसका विवाह शीघ्र हो जाए। दुकान आदि व्यापारिक प्रतिष्ठान वायव्य दिशा में होने से ग्राहकों का आवागमन बढ़ेगा तथा सामान जल्दी बिकेगा। ध्यान चिंतन तथा पठन-पाठन के लिए यह दिशा उत्तम नहीं है।

7. उत्तर दिशा : कुबेर तथा चन्द्र इसके देवता हैं तथा बुद्ध इसका ग्रह है। यह दिशा शुभ कार्यों के लिए उत्तम मानी गई है। पूजा, ध्यान, चिंतन, अध्ययन आदि कार्य उत्तराभिमुख होकर करने चाहिए। धन के देवता कुबेर की दिशा होने के कारण इस दिशा की ओर द्वार समृद्धि दायक माना गया है। देव-गृह, भंडार और घन-संग्रह का स्थान इसी दिशा में होना चाहिए। इस ओर जलाशय (water body) का होना अत्युत्तम है पर कभी भी इस ओर सिर करके नहीं सोना चाहिए।

8. ईशान (उत्तर-पूर्व) इसके देवता भगवान शंकर और ग्रह बृहस्पति हैं। दसों दिशाओं में यह सर्वोत्तम दिशा है। यह ज्ञान (पूर्व) और समृद्धि; (उत्तर) का मेल है। इस ओर द्वार होना सबसे अच्छा है। इससे आने वाली वायु सारे घर को सकारात्मक उर्जा से परिपूरित कर देती है। पूजा स्थान इसी दिशा में होना चाहिए। जल-स्थान (water body) बगीचा आदि इस दिशा के सुप्रभाव को बढ़ा देता है और घर में सुख-समृद्धि लाता है।

व्यावहारिक  वास्तु-शास्त्र में दिशाओं का महत्व है। भली-भांति समझ कर उनके उपयोग से जीवनमें लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

पं. श्यामबिहारी मिश्र

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