भारत का गौरव – सिन्धुपति महाराजा दाहरसेन

daharsenमहाराजा दाहरसेन के बलिदान दिवस पर विशेष -डा. एन. के. उपध्याय- अपनी सम्यता और संस्कृति पर गर्व करने के अनेक अवसर भारत का स्वर्णिम इतिहास हमें प्रदान करता है। अनेक ऋृशि, महर्शि महापुरूश एंव महामानव भारत के गौरव के रूप में वर्णित हैं। ऐसे सिद्ध महान व्यक्तियों को समय-समय पर स्मरण करते हुए हम भारतवासी देषभक्ति, देषहित त्याग व तपस्या की प्रेरणा ले सकें, भारत के जन-जन में आत्माभिमान और स्वदेषाभिमान जागृत कर सके, अन्तः प्रेरित हो राश्ट्र विकास पथ का संकल्प लें। इसी उद्देष्य से महापुरूशों की जयन्तियां मनाई जाती है।
सिन्ध के राजा राय साहसी की निःसंतान मृत्यु हो गयी। मृत्यु के समय अपनी रानी सुहन्दी को निर्देष दिया कि वह योग्य मंत्री चच से विवाह करें और उसकी संतान को ही सिन्ध का भावी राजा बनाये। राय साहसी की अंतिम इच्छानुसार रानी सुहन्दी ने मंत्री चच से विवाह किया। भगवान नृसिंह की कृपा व आषीर्वाद से उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। चच अत्यन्त सुंदर, मृदुव्यवहारी, बुद्धिमान व कुषल प्रषासक था। जन कल्याण के प्रति समर्पित षासक चच के काल में सिंध की समृद्धि में व्यापक वृद्धि हुई। चच की मृत्यु के पष्चात् साक्षात् नृसिंह स्वरूप दाहरसेन उŸाराधिकारी हुआ। दाहरसेन पिता चच की षासकीय कुषलता एवं बुद्धिमŸाा से सुपरीचित, सुयोग्य, प्रजाहितैशी, योग्य षासक सिद्ध हुआ। उसने कृशि, व्यापार, धर्म व सुषासन हेतु सभी प्रयत्न कर सिन्ध मंे षांति, सुरक्षा एवं संतोश का वातावरण स्थापित किया। गौवंष एवं मातृषक्तिकी रक्षा उसके षासन की सर्वोच्च प्राथमिकता थी। दाहरसेन का सिंध, धन धान्य से परिपूर्ण स्वर्ण एवं रत्न भंडारों से युक्त समृद्ध देष था। इसी समृद्धि ने विदेषी आक्रान्ताओं को आकर्शित किया। अरब आक्रमणकारी निरन्तर प्रयत्नरत थे।वे भारत के धर्म स्थलों को खंडित कर, धर्मान्तरण द्वारा सिन्ध की संस्कृति को दूशित करने हेतु संकल्पबद्ध, अथाह धन-संपदा को हथियाने को लालायित थे।
Dahirsenवीर दाहरसेन महान तीरंदाज था। ‘दाहरचक्र’ नामक षस्त्र षत्रु संहार कर लौट आने की क्षमता रखता था। अरब आक्रान्ता किसी भी तरह सिन्ध जीतने को कटिबद्ध थे। ब्राह्मण बाद क्षेत्र में मुहम्मद बिन कासिम ने स्थानीय बोद्धों और दाहर की सेना के अरबी मुसलमानों के सहयोग से दाहर पर आक्रमण किया। प्रत्यक्ष युद्ध के स्थान पर छल, कपट, शड़यंत्र, वेश बदलते लुकते छिपते हुये कासिम युद्ध का नेतृत्व कर रहा था। सिन्धु वीरों की वीरता से परीचित व भयभीत था। तीन रात, तीन दिन तक भीशण युद्ध में रक्त की नदियां बहने लगी दाहर सेन ने वीरोचित षौर्य से संघर्श किया। कासिम ने स्त्रियों को बंदी बनाकर अरबी सैनिकों को स्त्रीवेष में उनके साथ युद्धभूमि से दूरी पर स्त्रियों की वाणी में छलपूर्वक पुकार करवायी कि अरबी सैनिक उनका सतीत्व भंग कर रहे हैं – बचाओ, बचाओ ………ऐसी करूण स्त्री पुकार सुनकर दाहरसेन युद्ध भूमि से अकेले स्त्रियों की रक्षार्थ निकल पड़ा। अकेले दाहरसेन पर अरबी सेना ने भारी प्रहार किया। दाहरका हाथी तीरों से घायल हो गया फिर भी वह वीरता पूर्वक लड़ते हुये अकेले आक्रान्ताओं का संहार करता रहा। एक महान सिन्धु वीर षत्रु से धोखे में आकर, स्त्री रक्षाहित प्रण को पूर्ण करने के हेतु से अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। दाहरसेन की वीरगति का संदेष प्राप्त करते ही सिन्धु वीरांगना रानी लाड़ी घोड़े पर सवार हो षत्रु से संघर्श को निकल पड़ी। अंततः असुरक्षित समझ अपने सतीत्व की रक्षार्थ अनेक वीांगनाओं के साथ हंसते हंसते जौहर की ज्वाला में कूद पड़ी और अपने सतीत्व एवं पवित्रता की रक्षा करने में सफल हुयी। ऐसे वीर षिरोमणी राश्ट्रभक्त सिन्धुपति महाराजा दाहर सेन के अंतिम षब्द थे – हे मातृभूमि, भावी संतानें तुम्हें अवष्य मुक्त करायेंगी। राश्ट्र हेतु प्राणोत्सर्ग करने वाले षूरवीर की 1302वीं जयन्ति पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित कर स्मरण करना और उनके आदर्षों को आत्मसात करना, प्रत्येक भारतीय का राश्ट्र धर्म है।

मानव सभ्यता का सिरमौर सिन्ध
विष्व की प्राचीनतम सभ्यता ‘सैन्धव’ का विकास सिन्धु नदी के प्रवाह क्षेत्र में हुआ। यहां के समृद्ध मानव जीवन के अवषेश देखकर उपनिवेषवासी हतप्रभ रह गये। सैन्धव का नगर नियोजन 18वीं षताब्दी के पेरिस से भी उच्च कोटि का था। सप्त सैन्धव क्षेत्र क सुरभि युक्त पावन पर्यावृŸा से प्रेरित मंत्र द्रश्टा ऋशियों ने वेदों की रचना की। सिन्धु षब्द आर्यावर्Ÿा (भारत) की पहचान बन गया। सिन्धु से ही हिन्दु, हिन्दुस्तान, इंडस व इंडिया षब्द बने। यह नामकरण विदेषियों के कारण नहीं बल्कि हमारी स्थानीय बोलियों में ‘स’ का ‘ह’ उच्चारण किये जाने के कारण है। रामायण, पुराण, बौद्ध एवं जैन साहित्यों में सिन्ध का वर्णन मिलता है। अनेक इतिहासविज्ञ सप्त सैन्धव प्रदेष को ही आर्यों का आदि देष कहते हैं। सप्त सैन्धव की सात नदियां सिंधु, असिक्नी (चिनाब), वितस्ता (झेलम), परूश्णी (रावी), विपासा (व्यास) षतुद्रि (सतलज) एवं सरस्वती, ऋगवेद में वर्णित हैं। विदेषी विद्वान हड़प्पा और मुइन जोदड़ो में प्रथम प्राप्त उत्खनन अवषेशों केआधार पर इसका नामकरण इन नामों से ही करते रहे हैं। अद्यतन षोध से वैदिक सरस्वती नदी ेक प्रवाह मार्ग को खोज लिया गया है। अतः अनेक भारतीय मनीशी इसे सिन्धु सरस्वती सभ्यता कहने लगे हैं। सैन्धव एवं वैदिक सभ्यता को भारत राश्ट्र की दो भिन्न-भिन्न आधारभूत सभ्यतायें मानने वोल विद्वान, इस मत से सहमत हो रहे हैं कि ये दोनों मूल रूपसे भिन्न न होकर परस्पर गहन रूप से संबद्ध थी। दोनों ही समान सांस्कृतिक युग की परिचायक है। सिन्धु सरस्वती सभ्यता के लगभग 1400 स्थलों में से 917 भारत में और 481 पाकिस्तान एवं 2 अफगानिस्तान (षोर्तुगोई व मुंडीगाक) में है। यह सभ्यता उŸार में मांडा (जम्मू) दक्षिण में दाइमाबाद (महाराश्ट्र) पूर्व में आलमगीरपुर (उ.प्र.) और पष्चिम में सुत्काजेन्डोर (बलूचिस्तान) तक विस्तृत है।

डा. एन.के. उपध्याय
डा. एन.के. उपध्याय

सिन्धु सभ्यता विषालतम, नवसृजनषील एवंयुग परिवर्तनकारी रही है। सुनियोजित नगर, विस्मयकारी जल संग्रहण प्रबंध, कुषलतम जल निकास, समृद्ध समुद्री व्यापार, विषाल स्टेडियम, उन्नत कृशि, अद्वितीय योग एवं साधना परंपरा, जनतांत्रिक प्रषासन, कलात्मक सौन्दर्य एवं वैज्ञानिक अन्वेशण आदि मौलिक विषेशताओं से युक्त विष्व की महानतम सभ्यता व संस्कृति होने का गौरव प्राप्त है। सिन्धु क्षेत्र का यह राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक समृद्धता का गौरव अनवरत रहा। अरबी व्यापारी सिन्ध की धन संपदा, रत्न व स्वर्ण जड़ित मूर्तियों, गहन धार्मिक् आस्था और विस्मयकारी सिन्धु सभ्यता, संस्कृति का वर्णन करते नहीं थकते थे। ऐसा अरबी व्यापारियों की कहानियों में अंकित है। धन लोलुप, जिहादी एवं रक्त पिपासु आंक्रांताओं के आकर्शण का केन्द्र बने सिन्धु क्षेत्र को हथियाने में 570 वर्श लगे जबकि मध्य एषिया को 11 वर्श और पूर्वी यूरोप तक पहुंचने में अरबों को मात्र 30 वर्श ही लगे थे। यह आर्थिक समृद्धि के साथ साथ, सिन्ध की सैन्य क्षमता एवं षौर्य का ही परिचारक है।

error: Content is protected !!