भारतीय ज्योतिष सूर्यसिद्धांत आदि ग्रंथों से आनेवाले संपात बिंदु को ही राशि परिवर्तन का विंदू मानता आया है। पृथ्वी जिस मार्ग पर अपनी दैनिक गति से सूर्य के चारों ओर घूम रही है उसे क्रान्तिवृत कहा जाता है। इस क्रांतिवृत्त को 30-30 डिग्री में बांटकर ही सभी राशियों की गणना की परंपरा है , भले ही उसकी पहचान के लिए आरंभिक दौर में तारामंडल का सहारा लिया जाता हो। इसलिए तारामंडल की स्थिति में परिवर्तन या उस पथ में आनेवाले किसी अन्य तारामंडल से ज्योतिषीय गणनाएं प्रभावित नहीं होती हैं। पाश्चात्य ज्योतिषीय गणना प्रणाली ने खुद को विकसित मानते हुए भारतीय गणनाप्रणाली में प्रयोग किए जानेवाले संपात विंदू को राशि परिवर्तन का विंदू न मानकर तारामंडलों के परिवर्तन के हिसाब से अपनी राशि को परिवर्तित किया है। इस कारण भारतीय गणनाप्रणाली की तुलना में पाश्चात्य गणना प्रणाली में लगभग 23 अंशों यानी डिग्री का अंतर पड़ जाता है.।
अधिकांश भारतीय ज्योतिषियों ने इस पद्धति को अस्वीकार कर दिया है और हमारी गणनाएं तारामंडल के हिसाब से न होकर सूर्यसिद्धांत के संपात विंदू को राशि का प्रारंभिक विंदू मानकर होती है। इसलिए सर्पधर तारामंडल को पाश्चात्य ज्योतिष भले ही स्वीकार कर ले , क्यूंकि वह तारामंडल को ही राशि मानता आया है और सूर्य के झुकाव के फलस्वरूप होने वाले आकाशीय स्थिति के परिवर्तन को अपनी गणना में जगह देता आया है , पर भारतीय ज्योतिष में इस तारामंडल को स्वीकारे जाने की कोई वजह नहीं दिखती। इसलिए यह पाश्चात्य वैज्ञानिकों को भले ही आकर्षित करे , हमारे लिए इस नए तारामंडल या तेरहवीं राशि का भी कोई औचिंत्य नहीं।