डा. जे.के.गर्गदशहरे के दिन रावण-कुंभकर्ण-मेघनाद के पुतलों का दहन करते वक्त कुछ ही पलों के लिये हमारे मन में मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्रीराम के आदर्शों को अपने जीवन में अपना कर सभी प्रकार दुष्कर्मों एवं तामसी प्रव्रत्तियों यानि काम,क्रोध,लोभ,मद,मोह,मत्सर,अहंकार,आलस्य,हिंसा एवं चोरी को त्यागने का विचार आता है ,किन्तु हमारी यह सात्विकता से परिपूर्ण सोच वैराग्य की तरह क्षणिक ही होती है क्योंकि कुछ ही समय बाद हम सभी अपने सांसारिकता के प्रपंचों में तल्लीन हो जाते हैं | काश : अगर हम हम इस सात्विक सोच को अमली जामा पहना पाते तो हमारा जीवन एक अलग ही किस्म का बन जाता यानि हमारे समाज में झूठ, फरेब,धोखाधडी, लूटकचोट ,चोरी-चकारी, हिंसा, मारकूट, अपहरण-बलात्कार की भयावह घटनायें घटित ही नहीं होती | जरा सोचिये और चिन्तन-मनन कीजिये कि क्या ऐसा हो रहा है? अगर नहीं तो रावण-कुंभकर्ण-मेघनाद के पुतलों को जलाने और भव्य रामलीलाओं को देखने एवं श्रीराम की कसमें खानें का क्या औचित्य है? क्यों हमारे मन में काम, क्रोध, लोभ, मद , मोह, आलस्य की जड़ें दिन प्रति दिन मजबूत बनती जा रही है ? क्यों हम परनिंदा करने में सबसे आगे रहते हैं? क्यों हमारी बहन-बेटियां अपहरणकर्ताओं के हाथों रोजाना बेइज्जत होती है? क्यों भ्रष्टाचार का विषाणु हममें आत्मसात हो गया है ? क्यों हमारी कथनी और कथनी में अंतर बढ़ता ही जा रहा है ? क्यों हमारी जुबान पर राम किन्तु बगल में छुरी होती है ? कहते हैं कि देवता वो होते हैं जो कभी भी गलतीयां नहीं करते हैं ,वहीं मनुष्य वें होते हैं जो दूसरों की गलतीयों से सीखकर खुद वैसी गलतीयां नहीं करते हैं, वहीं मूढ़ व्यक्ति वो होता है जो बार बार गलतीयां करता है, उन्हें दोहराता है और अपने को सुधारने का कोई प्रयास भी नहीं करता है | प्रस्तुतिकरण—-डा. जे.के.गर्ग
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