हाडौती में अमन के फरिश्ते थे अशफाक भाईजान

9 जनवरी, पन्द्रवीं बरसी पर विशेष-
’’फख्र तो मुझे उस वक्त होगा, मेरा जनाजा बडी शान से निकले’’

img-20170105-wa0083फ़िरोज़ खान,बारां
बारां के खिदमतगुजार हाजी मुल्ला मोहम्मद इस्माईल सा. के बेटे मुंशी अब्दुल रजाक एडवोकेट जिन्होनें कोटा में रहकर आला तालीम हासिल करके वकालात को अपना पेशा बनाया, वह बारां बसे। 03 सितम्बर 1937 को उन्हीं के बेटे मोहम्मद अशफाक भाईजान का जन्म हुआ, जो आगे चलकर भाईजान के नाम से मशहूर हुए।
खुबसूरती भरा अंदाज, परिवार का लाड प्यार, लोगो से हमदर्दी और मोहब्बत भरे अंदाज में मिलने से उन्होने लोकप्रियता के आयामो की मंजिल पाई। भाईजान एडवाकेट ने शुरूआती तालीम मदरसा अंजुमन इस्लामियां में ही हासिल की। तद्परान्त बीए. की तालीम आपने जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से हासिल की। एम. एल.एल.बी की सनद अलीगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी से हासिल की। मुकम्मिल तालीम के फारिग होने के बाद भाईजान ने बारां में रहकर अपने वालिद के पद चिन्ह्ो पर चलते वकालत शुरू की। काबिलियत के कारण वह काबिल वकील बने।
मोहम्मद अशफाक भाईजान के बारे में कहा जा सकता है वह खुशमिजाज, अखलाक पसन्द, नवाबी रहन सहन के होते हुए भी मिलनसारी का जबरदस्त जज्बा रखते थे। एक बार भी जो उनसे मिलता था तो मुतासिर हुए बगैर नही रहता था। अलग अंदाज का लिबास पहनना, हेट लगाना, स्कार्फ बांधना, रूमाल लगाना, खुशबू व खिजाब लगाना, ठहाके मारकर हंसना और हंसाना, हर बडे छोटे को इज्जत देकर उनके दिलो में अपनी जगह बनाना, उनकी आदत में शुमार था।
अपने खानदान की तरह आप भी कौमी, इल्मी, सामाजिक सियासी कामो में बहुत दिलचस्पी रखकर आगे बढाते रहते थे। अच्छे अखलाक, मिलनसारी, जिन्दा दिली से सिर्फ मुस्लिम समाज ही नही बल्कि हिन्दू समाज, प्रशासनिक, पुलिस अफसरान, दिग्गज राजनेताओं में भी उनकी जबरदस्त पेठ थी। शहर में कुछ भी मामला होता तो उनकी मदद व सलाह से सुलझा पाने में हर आम अवाम को सुकून मिलता था। बारां शहर ही नही बल्कि हाडौती के सभी समाज के लोग आपकी इज्जत करने के साथ ही मान व सम्मान की नजरो से देखते थे। मधुरशाली और नेक इंसानियत की वजह का यही कारण था कि उन्हे अमन का फरिश्ता कहते थे।
भाईजान को उर्दू के साथ ही अंग्रेजी, हिन्दी से भी लगाव था। उर्दू की तरक्की के लिए बजमें अहबाब तंजीम भी उन्होने बनाई। आप इब्ने रजा तखल्लुस में शायरी भी करते थे। उनके कलाम ’’दीप से दीप जले’’ एवं ’’सराबो के शफीर’’ में भी प्रकाशित हुए है। कौम की फलाह के लिए अपने साथियो के साथ मिलकर ’’तंजीम’’ अंजुमन इत्तेहाद ए बहामी भी बनाई। जिसके जरिएं बारां के एवं प्रदेश व देश के लोगो ने उनकी काबिलियत का लौहा माना।
श्राज किसी का भी हो मगर सियासत में तो उनकी जबरदस्त पकड थी। लेकिन किसी पद, ओहदो से वह दूर रहकर काबिल लोगो को आगे बढाते थे। बारां शहर से भाईजान को बहुत लगाव था। जिला बनाने में भी उन्होने बुद्धिजीवियो के अलावा पत्रकार साथियो के साथ पहला किरदार निभाने में पहल की थी। क्लब बनाने और अखबार नवीसी में दिलचस्पी होने के कारण लिखते भी थे। 1984 में उन्होने पत्रकारो को संगठित करने के लिए जिला पत्रकार संघ की स्थापना भी करवाई। यहां तक की हाडौती का उजाला शीर्षक से कुछ साल अपना अखबार भी निकाला। सामाजिक संस्थाओ से जुडना, अच्छी शिक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम स्कूल की स्थापना की पहली शुरूआत मोहम्मद अशफाक भाईजान की ही थी। समाज की उन्नति तथा शादी ब्याह निकाह में फिजूल खर्ची रोकने के लिए भी साथियो से मिलकर हाडौती अंसारियान कमेटी चैबीस खेडा बनाई। जहां आज भी होने वाली शादियो में उनके नाम का स्मरण हो जाता है।
भाईजान का लेखन काबिले तारिफ था। अनेको लोगो को खत यहां तक की पोस्टकार्ड के जरिये संदेश भेजकर जुडे रहते थे। ईद, दिवाली, होली, 15 अगस्त, 26 जनवरी के अलावा कोई भी पर्व त्यौहार या खुशी गम के मामले में उनका खत अवश्य मिलता था। अपने वालिद के जरिये बनाये गये मदरसा अंजुमन इस्लामियां की तरक्की के लिए भाईजान ने अपना पसीना बहाया। मुठ्ठीभर आटा व सहयोग मांग कर छोटे से मदरसो को सिनियर सेकेण्ड्री तक पहुंचाने में उनकी मेहनत को नकारा नही जा सकता। अंजुमन के जलसे में झोली फेलाकर सहयोगी चन्दा लेने की खानदानी रिवायत को भी वह बखूबी निभाते थे। इतना ही राजस्थान के सिंह /शेर कहे जाने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री तथा उपराष्ट्रपति स्वर्गीय भेरोसिंह शेखावत ने जब जलसे में उनका उद्गारो का पैगाम सुना तो वह भी स्तब्ध रह गये। शेखावत ने भाईजान को जुडने की गुजारिश तक की थी। समाज को कभी जरूरत पडती थी तो ढाल बनकर खडा होना भाईजान जरूरी समझते थे। गरीबो के मसीहा बनकर रहते थे, और वक्त-बे-वक्त उनके मददगार भी बनते थे।
दुखदः एवं गमजदा वक्त था 9 जनवरी 2002
कोटा से बारां लौटते वक्त भाईजान की कार अन्ता के समीप दुर्घटनाग्रस्त हो गई और उनका वही इंतकाल हो गया। दुनिया से रूख्सत होने की खबर जैसे ही अन्ता से बारां शहर तथा जिले के साथ ही हाडौती संभाग व प्रदेश भर मंे पहुंची तो शोक छा गया। हर शख्स उनकी मौत पर गमगीन था और आंखे नम थी। बारां शहर से जब उनका जनाजा निकला तो उसमें हिन्दू, मुस्लिम के साथ ही तमाम समाजो के लोगो ने शिरकत की। ऐसा जनाजा लोगो ने पहली बार देखा। हालात यह थी की बारां की सडके उनको अलविदा कहने में भर चुकी थी। पैर रखने की जगह नही थी। कही हमदर्द जनाजे को कंधा नही लगा पा रहे थे। शहर में आज तक किसी की शव यात्रा अथवा जनाजे में इतना सैलाब कही देखा जितना भाईजान के जनाजे में था। उनके कुछ अल्फाज़ लोगो की जुबान पर थे।
’’फख्र तो मुझे उस वक्त होगा, उमेश के दोस्तो की आंखो में आंसू हो, और मेरा जनाजा बडी शान से निकले, जो भी मय्यत में आए उनको मुझसे न शिकवा रहे न शिकायत रहें। न दौलत चाहिए न शोहरत चाहिए, दोस्तो की आवाज मुझ तक पहुंचे ऐसा जज्बा चाहिए। बस यही तमन्ना यही आरजू थी भाईजान में…।
9 जनवरी 2017 को भाईजान के रूखसत हुए 15 साल बित गये। लेकिन उनकी याद आज भी ताजा है और उनका नाम लोगो की जुबान पर है। जिसे कभी भुलाया नही जा सकता। उनको सही मायने में खिराजे अकीदत यही होगी की हम उनके कार्यो से नसीहत ले तथा उनके नेक रास्तो पर चले। वैसे तो दुनिया से एक दिन सभी को रूख्सत होना है। लेकिन जिस शान व शौकत से भाईजान बिदा हुए है यह नसीब वालो को ही मिलता है। भाईजान के दो बेटे अरशद इकबाल व नवीद अशफाक रजा है। नवीद अशफाक रजा तो स्वर्गीय भाईजान की राह पर है। खानदान की रिवायत को निभाने की पुरी कोशिश भी कर रहे है। लोगो के दिलो के हमदर्द भाईजान अशफाक मोहम्मद की बरसी पर शहर उनकी यादो को स्मरण करते हुए श्रद्धा सुमन अर्पित करता है।

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