नारी को जितने अलंकारों से सुशोभित करे उतना कम हैं। बल्कि नारी खुद अपने आप में एक अलंकार है। नारी की शक्ति और संघर्ष को सलाम करने और उनके उत्कृष्ट कामों को सराहने के उद्देश्य से प्रत्येक साल आठ मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 1909 से मानी जाती है। दरअसल 1909 में अमेरिका की कपड़ा मील में महिलाओं ने खुद के साथ हो रहे शोषण को लेकर आवाज बुलंद की थीं। आखिर में उनकी जीत हुई थीं और उन्हें वोट देने का अधिकार मिला था। इस दिन जुल्म और जहन्नुम की जिंदगी जी रही महिलाओं को खुद की शक्ति, सामर्थ्य और अस्तित्व का असली अहसास हुआ था। यूं कहे कि इस दिन उनका एक नया जन्म हुआ था। इस जंग की जीत के बाद महिलाओं के न कदम रूके और न ही हौंसले कम हुए। फिर वह धरती ही नहीं बल्कि अंतरिक्ष में भी अपनी कामियाबी के झंडे लहराने लगी। खेल, शिक्षा, विज्ञान, चिकित्सा और उद्योग से लेकर राजनीति, संगीत, फिल्म और साहित्य सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने अपनी कला और कौशल का अद्भुत परिचय दिया। यकीनन ! समाज और देश में उनकी इस कुशलता से व्यापक बदलाव महसूस किया जाने लगा। अबला और बेचारी मानी जाने वाली, मीरा के रूप में जहर का प्याला पीने वाली, पति की मृृत्यु पर सती प्रथा के नाम पर जलाये जाने वाली, द्रौपदी के रूप में जुए के दांव में लगाये जाने वाली और कभी सीता के रूप में अग्निपरीक्षा देने के लिए विवश होने वाली नारी का यह बदलाव इतना सुगम और समयानुसार स्वाभाविक नहीं था, बल्कि जुल्म और प्रताड़ना की लांघती जा रही सीमाओं ने उनको खुद आगे आकर बदलाव करने के लिए प्रोत्साहित किया। जिसके परिणामस्वरूप उन्हें समाज में सम्मानजनक और गरिमामय स्थान मिला।
निसंदेह, विगत सालों में महिलाओं की स्थिति काफी बदली है और काफी बदलनी बाकी हैं। जहां एक ओर समाज में प्रत्येक दिन महिलाओं की सफलता के चर्चे सुनने में आ रहे है तो वहीं दूसरी उनके साथ हो रही अमानवीयता की घटनाएं भी शर्मसार कर रही है। कई आज भी धर्म के ठेकेदार महिलाओं के गायन और नृत्य पर फतवे जारी कर रहे हैं तो कई उन पर हैवानियत का पहरा हावी हो रहा है। राजनीति में आज भी महिलाओं की भागीदारी संतुष्टिजनक नहीं है तो कई देहाती इलाकों में डायन प्रथा के नाम पर उन पर अत्याचार जारी है। जरूरत है कि नारी देह के नाम पर नग्नता का इंच-इंच और सेंटीमीटर-सेंटीमीटर का दृष्टिकोण खत्म हो। नारी को भोग की वस्तु समझने वाली सोच का मर्दन हो। उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए न केवल योजनाओं और लाभ के अवसरों की उपलब्धता में वृद्धि हो बल्कि उनके प्रति मानसिकता में भी बदलाव देखने को मिले। और समाज में यह बदलाव लाने के लिए सबसे पहले महिलाओं को खुद आगे आकर पहल करनी होगी।
– देवेंद्रराज सुथार
जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में अध्ययनरत और साथ में स्वतंत्र लेखन।
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