दशहरे को मनाये स्नेह, विनम्रता, सोहार्द के संकल्प पर्व के रूप में

डा.जे.के.गर्ग
निसंदेह दशहरा जीवन में काम,क्रोध,लोभ,मद,मोह,मत्सर,अहंकार,आलस्य,हिंसा, अधर्म एवं चोरी को त्याग कर स्नेह,विनम्रता,सोहार्द को अपनाने का संकल्प लेने का पर्व है | ’दश’ व’ हरा’ से मिलकर दशहरा बना है | निसंदेह दशहरा का अर्थ भगवान राम के द्वारा रावण के दसों सिरों यानि दसों पापों यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी को नष्ट करने एवं तथा राक्षस राज रावण के आंतक से मुक्ति दिलाने से है। भगवान श्रीराम ने रावण से युद्ध करके आश्विन शुक्ला दशमी के दिन रावण का वध किया था, इसीलिए प्रतिवर्ष सनातन धर्म के अनुयायी आश्विन शुक्ला दशमीं को विजयादशमी के रूप में मनाते हैं। ध्यान रक्खें कि विजयदशमी मात्र इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी किन्तु वास्तविकता में विजया दशमी बुराई में भी अच्छाई ढूँढने का अवसर होता है। रावण–वध के बाद स्वयं भगवान राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को रावण के पास जाकर रावण से राजनीति का गूढ़ ज्ञान प्राप्त करने का आदेश दिया था | रावण ने लक्ष्मणजी को तीन सीख दी यानि शत्रु को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए | शुभ कार्य जितनी जल्दी हो कर डालना चाहिए और अपने जीवन का कोई राज हो तो उसे किसी को भी नहीं बताना चाहिये | रावण ने लक्ष्मणजी को कहा कि यहां पर मैने गलती कर दी क्योंकि मैने अपनी म्रत्यु का राज अपने भाई विभीषण को बता दिया था इसीलिए विभीषण मेरी मृत्यु का राज जानता था |

डा. जे.के.गर्ग
कई सालों से दशहरे के दिन विशालकाय रावण, मेघनाथ एवं कुंभकर्ण के पुतलों को जलाते हैं | इन पुतलों को जलाते वक्त कुछ पलों के लिये हमारे मन के अंदर भगवान राम के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाकर सभी प्रकार दुष्कर्मों एवं तामसी प्रव्रत्तियों यानि काम,क्रोध,लोभ,मद,मोह,मत्सर,अहंकार,आलस्य,हिंसा एवं चोरी को त्यागने का विचार आता है,किन्तु हमारा यह विचार श्मशानी वैराग्य की तरह ही क्षणिक होता है क्योंकि कुछ ही समय बाद हम सभी अपने सांसारिकता के प्रपंचों में तल्लीन हो कर तामसी प्रव्रतियों के चंगुल में फंस जाते हैं | काश ! अगर हम हम इस सात्विक सोच को अमली जामा पहना पाते तो हमारा जीवन एक अलग ही किस्म का बन जाता यानि हमारे समाज में झूठ, फरेब ,धोखाधडी, लूटकचोट ,चोरी-चकारी, हिंसा, मारकूट, अपहरण-बलात्कार की भयावह घटनायें घटित ही नहीं होती | जरा सोचिये और चिन्तन-मनन कीजिये कि क्या ऐसा हो रहा है? अगर नहीं तो रावण-मेघनाथ और कुमंकर्ण के पुतलों को जलाने, भव्य रामलीलायें आयोजित करने और जय श्रीराम के जयकारें बोलने का क्या औचित्य है ?
क्यों हम लाखों करोड़ो रूपये पुतले बनाकर उन्हें जलाने में व्यर्थ खर्च करते हैं ? क्यों हमारे मन में काम, क्रोध, लोभ, मद , मोह, आलस्य की जड़ें दिन प्रति दिन मजबूत बनती जा रही है ? क्यों हम परनिंदा करने में सबसे आगे रहते हैं? क्यों हमारी बहन बेटियां अपहरणकर्ताओं के हाथों रोजाना बेइज्जत होती है क्यों भ्रष्टाचार का विषाणु हममें आत्मसात हो गया है ? क्यों हमारी कथनी और कथनी में अंतर बढ़ता ही जा रहा है ? क्यों हमारी जुबान पर राम किन्तु बगल में छुरी होती है? क्यों जरासी सत्ता मिलते ही हम अहंकारी बन जाते हैं ?

कहते हैं कि देवता वो होते हैं जो कभी भी गलतीयां नहीं करते हैं,वहीं मनुष्य वें होते हैं जो दूसरों की गलतीयों से सीखकर खुद वैसी गलतीयां नहीं करते हैं, वहीं मूढ़ व्यक्ति वो होता है जो बार बार गलतीयां करता है, उन्हें दोहराता है और अपने को सुधारने का कोई प्रयास भी नहीं करता है | अत: आज हम सभी अपने सच्चे मन से स्वयं से यह वादा करें कि अपने भारत को प्रगतिशील, उन्नत, सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाने हेतु परस्पर स्नेह,सोहार्द, सामंजस्य स्थापित करने हेतु क्रोध, अभिमान, लालच- लोभ, मद, मोह, अहंकार, हिंसा चोरी-डकेती ,ईर्ष्या-डाह का परित्याग कर आपस में सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध बना कर रहेगें |एक दुसरे की मदद करेगें | बहिन बेटियोंके सम्मान की रक्षा करेगें |अगर ऐसा हो पाया तो सही अर्थों में हम श्री राम के आदर्शों को अंगीकार कर विजयदशमी के पर्व को सार्थक बना सकगें |
सच्चाई तो यही है कि रावण की राम के हाथों पराजय उसके अहंकार के कारण ही हुयी थी | तुलसीदासजी भी रावण के अहंकार को उसकी पराजय और म्रत्यु का मुख्य कारण बताते है | बल और बुद्धीमता के अहंकार ने रावण को ना अपने अंत तक पहुंचाया बल्कि उसके अहंकार ने आगामी पीढ़ियों के लिये रावण का चरित्र बुराई परस्त्रीगमन,अहंकार,क्रोध,घमंड का प्रतिक बना दिया है | निसंदेह विजयादशमी का पर्व मनाना तभी सार्थक होगा जब हम अपनी दिनचर्या एवं जीवन में से सभी प्रकार के पापों यानि काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा अधर्म और चोरी को छोड़ने का संकल्प लेकर उसे मूर्त रूप देगें और तभी सही मायनों मं राम राज्य स्थापित हो सकेगा । राम राज्य की स्थापना मात्र मंदिरों में माथा टेकने और राम राम के नाम को जपने से नहीं होगा वरन राम के दुवारा स्थापित मानवीय आदर्शों को मूर्त रूप देने से होगा | क्रोध एक माचिस की तिली है जो दूसरों को जलाने से पूर्व खुद को ही जला डालती है | क्रोध में हम अपना विवेक एवं मानसिक संतुलन खो कर अपना ही नुकसान करते हैं| क्रोधित होकर हम सफलता के सभी दरवाजे बंद कर देते हैं | हमारे दुर्व्यसन यानि धूम्रपान, मिथ्या वचन, दूसरों के साथ मारपीट करना, दूसरों को अपमानित करना एवं प्रताड़ित करना, शराब पीना हमें सन्मार्ग से हटा कर विनाश के गर्त में ढकेलते हैं जिससे हमारे और हमारे स्वजनों के जीवन को नारकीय बना देता है| आलस्य आदमी को उसके कर्मों से विमुख कर देता है, उसकी बुद्धी मंद हो जाती है जिससे समाज में उसकी कोई अहमियत नहीं होती है और वह उपेक्षा का पात्र बनता है| तलवार से लगे घावों को तो भरा जा सकता है किन्तु कटु-कर्कश वाणी के घावों को कभी भी नहीं भरा जा सकता है ,कर्कश वाणी सिर्फ शत्रु पैदा कर सोहार्दता को समूल नष्ट करती है | काम वासना योनाचार अनाचार की जननी है | आदमी काम वासनाओं से अपने को चरित्रहीन बना लेता है एवं अनेकों अनैतिक कार्यो को कर अनेक बीमारियों को बुलावा देता है | काम वासना के वशीभूत होकर ही रावण ने ने माता सीता का बलात अपहरण किया जिसके परिणाम स्वरूप वह भगवान राम के हाथों मारा गया। लोभ-लालच के वशीभूत होकर रावण ने भगवान शिवजी से अपने लिए सोने की लंका मांग ली एवं लंकापति बन स्वयं को सर्वश्रेष्ठ,शक्तिशाली मान अवांछित कार्यों में लिप्त होने लगा |
रावण की इर्ष्या-डाह-जलन की प्रव्रत्ति की वजह से उसके हितेषी भी मन ही मन उससे दूरी बनाने लगे | इसी वजह से रावण का सगा भाई विभीषन रावण को छोड़ कर राम का शरणार्थी बन गया | आज भी इर्ष्या-जलन की वजह आदमी बेवजह यह सोचकर दुखी रहता है कि मेरा पड़ोसी , मेरे रिश्तेदार, मेरे दोस्त मुझसे ज्यादा सुखी कैसे और क्यों हैं ?
पीठ पीछे किसी की निंदा कर हम अपना ही अहित करते हैं और दूसरों को अपना दुश्मन बनाते है | रावण की परनिंदा की आदत भी उसकी पराजय का कारण बनी |

रावण का अभिमान ही उसके पतन का कारण बना | हम हमारे अभिमान-घमंड की वजह से दूसरों के स्वाभिमान को ठेंस पहुंचाते हैं | कहावत है कि घमंडी का सिर हमेशा नीचा ही रहता है | हमने कल के बादशाह को कंगाल बनते हुए देखा है | पवनपुत्र हनुमानजी ने लंकापति रावण के वैभव को देख कर कहा कि अगर रावण में अधर्म एवं अहंकार अधिक बलवान नहीं होता तो वह देवलोक का भी स्वामी बन जाता |

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