राजेन्द्र बाबू के जीवन के अनसुने प्रेरणादायक संसमरण पार्ट 3 अंगेज को सिखाया पाठ

dr. j k garg
एक बार राजेंद्र बाबू नाव से अपने गांव जा रहे थे। नाव में कई लोग सवार थे। राजेंद्र बाबू के नजदीक ही एक अंग्रेज बैठा हुआ था। वह बार-बार राजेंद्र बाबू की तरफ व्यंग्य से देखता और मुस्कराने लगता। कुछ देर बाद अंग्रेज ने उन्हें तंग करने के लिए एक सिगरेट सुलगा ली और उसका धुआं जान बूझकर राजेंद्र बाबू की ओर फेंकता रहा। कुछ देर तक राजेंद्र बाबू चुप रहे। लेकिन वह काफ़ी देर से उस अंग्रेज की इस हरकत को सहन नहीं पाये। उन्हें लगा कि अब उसे सबक सिखाना जरूरी है। कुछ सोचकर वह अंग्रेज से बोले, ‘महोदय, यह जो सिगरेट आप पी रहे हैं क्या आपकी ही है?’ यह प्रश्न सुनकर अंग्रेज व्यंग्य से मुस्कराता हुआ बोला, ‘अरे, मेरी नहीं तो क्या तुम्हारी है? महंगी और विदेशी सिगरेट है।’ अंग्रेज के इस वाक्य पर राजेंद्र बाबू बोले, ‘बड़े गर्व से कह रहे हो कि विदेशी और महंगी सिगरेट तुम्हारी है। तो फिर इसका धुआं भी तुम्हारा ही हुआ न। उस धुएं को हम पर क्यों फेंक रहे हो? तुम्हारी सिगरेट तुम्हारी चीज है। इसलिए अपनी हर चीज संभाल कर रखो। इसका धुआं हमारी ओर नहीं आना चाहिए। अगर इस बार धुआं हमारी और आया तो सोच लेना कि तुम अपनी जबान से ही मुकर रहे हो। तुम्हारी चीज तुम्हारे पास ही रहनी चाहिए, चाहे वह सिगरेट हो या इसका धुआं, राजेन्द्र बाबू की बात को सुनकर बेचारा अंग्रेज सकपकाया और उसने अपनी जलती हुई सिगरेट को बुझा दिया।

Dr J. K. Garg

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